बिहार विधानसभा चुनाव 2025 – महिला मतदाताओं की बढ़त, लैंगिक अंतर और निर्वाचन आयोग की पारदर्शिता पर सवाल
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बिहार चुनाव 2025 में महिलाओं का रिकॉर्ड मतदान — मतदाता सूची में लैंगिक विसंगतियों और निर्वाचन आयोग की पारदर्शिता पर उठे सवाल।
बिहार चुनाव में महिलाओं की भागीदारी पुरुषों से अधिक रही
एसआईआर प्रक्रिया में महिला नामों के विलोपन पर सवाल
नीतीश सरकार की कल्याणकारी योजनाओं का प्रभाव संभावित
Bihar/ हाल में संपन्न बिहार विधानसभा चुनाव में एक बार फिर अनूठा चुनावी पैटर्न देखने को मिला है। भारत निर्वाचन आयोग (ईसीआई) के मतदान के प्रारंभिक आंकड़ों के मुताबिक, महिला मतदाताओं की तादाद पुरुषों से कम से कम 4.34 लाख ज्यादा रही, जोकि हैरतअंगेज है क्योंकि विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) के बाद मतदाता सूची में महिलाओं के नाम पुरुषों के मुकाबले तकरीबन 42 लाख कम दर्ज किए गए थे।
यह लैंगिक अंतर, जहां कम पंजीकरण वाले मतदाताओं का मतदान प्रतिशत ज्यादा रहा, कल्याणकारी राजनीति, जनसांख्यिकीय हकीकतों और मतदाता सूची की विश्वसनीयता से जुड़े लंबित सवालों के जटिल अंतर्संबंधों को रेखांकित करता है। यह विरोधाभास तब और स्पष्ट हो जाता है, जब इसे चुनाव से पहले की गई एसआईआर प्रक्रिया की पृष्ठभूमि में देखा जाए। इस प्रक्रिया के नतीजे में खालिस तौर पर पुरुषों को बख्स दिया गया तथा महिलाओं को असमान रूप से मतदाता सूची से हटा दिया गया। इन विलोपनों के बाद, बिहार के मतदाताओं का लैंगिक अनुपात अंतिम एसआईआर मतदाता सूची में घटकर मात्र 892 रह गया, जबकि एक साल पहले यह 907 दर्ज किया गया था।
सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बाद जारी किए गए मसौदा एसआईआर और मतदाता सूची से बहिष्करण के आंकड़ों का ‘द हिंदू’ द्वारा किए गए सांख्यिकीय विश्लेषण से पता चला कि महिलाएं (18-29 साल) सबसे ज्यादा प्रभावित हुईं, खासतौर पर “स्थायी रूप से दूसरी जगह चले गये” वाली श्रेणी के अंतर्गत नाम निकाल देने की वजह से। इससे पता चलता है कि शादी के बाद स्थानांतरित होने वाली महिलाओं को मतदाता सूची से हटाए जाने का खामियाजा भुगतना पड़ा और इस बात को लेकर कोई पारदर्शिता नहीं है कि उन्हें उनके नए स्थान पर मतदाता सूची में शामिल किया गया या नहीं।
इन तमाम विसंगतियों के बावजूद, अगर पिछले चुनावी रुझानों को सही माना जाए तो महिलाओं का ज्यादा मतदान प्रतिशत नीतीश कुमार की अगुवाई वाली सरकार के लिए फायदेमंद साबित हो सकता है। उनके लगभग दो दशक के कार्यकाल में लक्षित कल्याणकारी उपायों के जरिए महिला सशक्तिकरण पर लगातार जोर दिया गया है।
इसी चुनाव चक्र में सितंबर में मुख्यमंत्री महिला रोज़गार योजना की शुरुआत हुई और बिहार भर की महिलाओं को 10,000 रुपये की राशि हस्तांतरित की गई। आदर्श आचार संहिता लागू होने के बाद भी राशि का वितरण जारी रहा और निर्वाचन आयोग ने इस संदिग्ध तर्क को स्वीकार कर लिया कि यह एक “पहले से चली आ रही योजना” है। चुनावी प्रक्रियाओं में महिलाओं की बढ़ती भागीदारी का जश्न मनाना लाजिमी है। इस किस्म के रुझान ज्यादातर उन राज्यों तक ही सीमित रहे हैं जहां या तो राजनीतिक-वैचारिक प्रतिस्पर्धा ज्यादा है - पश्चिम बंगाल और केरल - या फिर जहां विकास दर ऊंची है। हालांकि, बिहार की तस्वीर कुछ और ही है। काम की तलाश में पुरुषों के उच्च प्रवासन की दर आंशिक रूप से इस तथ्य की व्याख्या करती है कि महिलाओं का पंजीकृत आधार छोटा होने के बावजूद उनका कुल मतदान प्रतिशत पुरुषों से ज्यादा क्यों रहा।
अंतिम क्षणों में नकद हस्तांतरण और ये संरचनात्मक जनसांख्यिकीय कारक किसी भी गहन राजनीतिक या वैचारिक लामबंदी के मुकाबले मतदान के पैटर्न के लिए ज्यादा जिम्मेदार मालूम होते हैं। यह एक बुनियादी सवाल पर निर्वाचन आयोग की चुप्पी को उजागर करता है: बिहार की मतदाता सूची में लैंगिक अनुपात राज्य की आबादी के सर्वेक्षणों के मुकाबले काफी कम कैसे हो गया? जब तक निर्वाचन आयोग एसआईआर प्रक्रिया के बारे में पारदर्शी जवाब नहीं दे देता, तब तक महिलाओं के ज्यादा मतदान प्रतिशत का जश्न मनाना मुनासिब ही रहेगा। चुनावी भागीदारी तभी सार्थक होती है, जब निष्पक्ष और सटीक मतदाता पंजीकरण हो।