भगवद्गीता और नाट्यशास्त्र को यूनेस्को मान्यता: IGNCA संगोष्ठी में सांस्कृतिक विरासत का उत्सव
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भगवद्गीता और नाट्यशास्त्र को यूनेस्को की अंतरराष्ट्रीय मान्यता
IGNCA द्वारा दो दिवसीय संगोष्ठी का आयोजन
भारतीय ज्ञान परंपरा की वैश्विक पहचान को बल
इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र (IGNCA) ने भगवद्गीता और भरतमुनि की नाट्यशास्त्र को यूनेस्को की Memory of the World International Register में शामिल किए जाने के उपलक्ष्य में एक दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया है। इस संगोष्ठी का उद्घाटन सत्र 30 जुलाई 2025, मंगलवार को डॉ. अंबेडकर इंटरनेशनल सेंटर, नई दिल्ली में संपन्न हुआ। संगोष्ठी का विषय था — "शाश्वत ग्रंथ और सार्वभौमिक शिक्षाएं: भगवद्गीता और नाट्यशास्त्र का यूनेस्को मेमोरी ऑफ द वर्ल्ड इंटरनेशनल रजिस्टर में अंकन"।
इस उद्घाटन अवसर पर केंद्रीय संस्कृति एवं पर्यटन मंत्री श्री गजेंद्र सिंह शेखावत मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित रहे। IGNCA न्यास के अध्यक्ष और पद्म भूषण श्री राम बहादुर राय ने सत्र की अध्यक्षता की। इस अवसर पर स्वामी ज्ञानानंद जी महाराज, G.I.E.O. गीता संस्थान, कुरुक्षेत्र के संस्थापक, तथा पद्म विभूषण डॉ. सोनल मानसिंह, पूर्व सांसद (राज्यसभा) विशिष्ट अतिथि के रूप में मंच पर विराजमान थे।
IGNCA के सदस्य-सचिव डॉ. सच्चिदानंद जोशी ने उद्घाटन भाषण दिया जबकि यूनेस्को मेमोरी ऑफ द वर्ल्ड नोडल केंद्र के प्रभारी एवं IGNCA के डीन (प्रशासन) प्रो. रमेश चंद्र गौड़ ने स्वागत भाषण दिया और अतिथियों का परिचय कराया। यह गर्व की बात है कि इन दोनों मूल भारतीय ग्रंथों – भगवद्गीता और नाट्यशास्त्र – को यूनेस्को की सूची में शामिल कराने में IGNCA की प्रमुख भूमिका रही।
मुख्य अतिथि श्री गजेंद्र सिंह शेखावत ने अपने संबोधन में कहा, “गीता का ज्ञान निस्संदेह पाँच हज़ार वर्षों से भी पुराना है, और भरतमुनि की नाट्यशास्त्र ढाई हज़ार वर्षों से अधिक पुरानी है। जब आज की कई बड़ी सभ्यताएँ अस्तित्व में भी नहीं थीं, तब भारत ने कला, संस्कृति और अध्यात्म पर इतना परिष्कृत ग्रंथ प्रस्तुत किया था। गीता का संदेश ‘सर्वभूत हिताय’ है – यह सम्पूर्ण प्राणीमात्र के लिए है। इसकी वैश्विक मान्यता इसीलिए न केवल उपयुक्त है बल्कि अत्यंत आवश्यक भी।" उन्होंने युवाओं से अपील की कि वे उपनिवेशवादी सोच से बाहर निकलें और अपने सांस्कृतिक गौरव को पहचानें।
स्वामी ज्ञानानंद जी महाराज ने डिजिटल युग और गीता का रोचक संबंध बताया: “अगर हम ‘DIGITAL’ शब्द से 'D', 'I', और 'L' हटा दें, तो ‘GITA’ शेष रह जाता है। इसका अर्थ है कि जब गीता हृदय में होती है, तभी तकनीक सही दिशा में जाती है।”
डॉ. सोनल मानसिंह ने गीता और नाट्यशास्त्र के बीच आध्यात्मिक समानता पर प्रकाश डालते हुए कहा कि दोनों ग्रंथ ‘कर्मयोग’ पर आधारित हैं — गीता ‘निष्काम कर्म’ सिखाती है, तो नाट्यशास्त्र कलाकार से उसकी श्रेष्ठ अभिव्यक्ति की अपेक्षा करता है। दोनों ही क्रिया को साधना मानते हैं।
श्री राम बहादुर राय ने कहा कि इन ग्रंथों का यूनेस्को में समावेश केवल औपचारिक सम्मान नहीं है, बल्कि एक ऐसे सांस्कृतिक मार्ग की शुरुआत है जो वैश्विक समाज को धर्म, लोकतंत्र और आत्मबोध की ओर ले जा सकता है।
डॉ. सच्चिदानंद जोशी ने अपने वक्तव्य में कहा कि गीता को किसी प्रमाणपत्र की आवश्यकता नहीं है, फिर भी यूनेस्को में इसका समावेश इसकी सार्वभौमिकता को दर्शाता है। उन्होंने बताया कि दोनों ग्रंथों के नामांकन दस्तावेज IGNCA के विद्वानों द्वारा बड़ी सूक्ष्मता से तैयार किए गए थे।
प्रो. रमेश चंद्र गौड़ ने कहा कि इस अंकन के माध्यम से भारत के प्राचीन ज्ञान को वैश्विक मंच पर ऐतिहासिक मान्यता मिली है। उन्होंने IGNCA की भूमिका को इस दिशा में समर्पित बताया।
इस अवसर पर ‘From Manuscript to Memory’ नामक पुस्तक का लोकार्पण किया गया जिसमें इन ग्रंथों के पांडुलिपि स्वरूप से वैश्विक पहचान तक की यात्रा का वर्णन है। साथ ही एक प्रदर्शनी का उद्घाटन हुआ जिसमें दुर्लभ पांडुलिपियाँ और ऐतिहासिक दस्तावेज़ प्रदर्शित किए गए।
श्री विशाल वी. शर्मा, भारत के स्थायी यूनेस्को प्रतिनिधि (पेरिस) ने वीडियो संदेश के माध्यम से IGNCA को बधाई दी और इस उपलब्धि को भारत की बौद्धिक धरोहर के लिए ऐतिहासिक बताया।
इस संगोष्ठी का समापन सत्र 31 जुलाई 2025 को शाम 5 बजे IGNCA के समवेत ऑडिटोरियम, जनपथ में आयोजित होगा। इसमें संस्कृति मंत्रालय के सचिव श्री विवेक अग्रवाल मुख्य अतिथि होंगे और केंद्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. श्रीनिवास वरखेड़ी विशिष्ट अतिथि के रूप में भाग लेंगे। समापन सत्र की अध्यक्षता डॉ. सच्चिदानंद जोशी करेंगे, और प्रो. रमेश चंद्र गौड़ स्वागत भाषण के साथ-साथ संगोष्ठी का सार प्रस्तुत करेंगे।
दिनभर कई सत्रों के माध्यम से विद्वानों, संस्कृति-चिंतकों और धरोहर विशेषज्ञों ने इन शाश्वत ग्रंथों की आज की वैश्विक प्रासंगिकता पर विचार-विमर्श किया। अंत में, डॉ. मयंक शेखर ने औपचारिक धन्यवाद ज्ञापन के साथ इस ऐतिहासिक आयोजन का समापन किया।