आषाढ़ गुप्त नवरात्र के प्रथम दिवस के आलोक में प्रथम महाविद्या माँ काली पर सादर समर्पित

Thu 26-Jun-2025,10:37 PM IST +05:30

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आषाढ़ गुप्त नवरात्र के प्रथम दिवस के आलोक में प्रथम महाविद्या माँ काली पर सादर समर्पित (आषाढ़ गुप्त नवरात्र के प्रथम दिवस के आलोक में प्रथम महाविद्या माँ काली पर सादर समर्पित
  • माँ काली: दस महाविद्याओं में प्रथम और सबसे उग्र स्वरूप।

  • रक्तबीज वध हेतु देवी काली का प्राकट्य और महत्व।

  • काली साधना से शत्रु नाश और आत्मशक्ति की प्राप्ति।

Madhya Pradesh / Jabalpur :

Jabalpur / नवरात्र के संबंध में यह सर्वविदित है कि कि एक वर्ष में चार संधि काल होते हैं और इसलिए क्रमशः चार नवरात्र चैत्र, आषाढ़ अश्विन और माघ महीने में मनाए जाने की विधान है। भारत में 51 शक्तिपीठों का विशेष महत्व है और इनमें से कई शक्तिपीठ जनजातियों द्वारा पूजित संरक्षित किए गए हैं। चार संधि कालों में सत्व गुण तमोगुण और रजोगुण के मध्य उचित सामंजस्य स्थापित करना ही नवरात्र का मूल आधार है। तन मन को निर्मल और पूर्णत: स्वस्थ रखने के का अनुष्ठान ही नवरात्र है।

आषाढ़ और माघ में गुप्त नवरात्र में दस महाविद्याओं के पूजन का विधान है। माता सती को जब भगवान् शिव ने दक्ष प्रजापति के यहाँ जाने से रोका तब कुपित होकर सती ने अपने दस स्वरूपों को प्रकट किया और शिवजी सती के सामने आ खड़े हुए। उन्होंने सती से पूछा- 'कौन हैं ये?' सती ने बताया,‘ये मेरे दस रूप हैं। आपके सामने खड़ी कृष्ण रंग की काली हैं, आपके ऊपर नीले रंग की तारा हैं। पश्चिम में छिन्नमस्ता, बाएं भुवनेश्वरी, पीठ के पीछे बगलामुखी, पूर्व-दक्षिण में धूमावती, दक्षिण-पश्चिम में त्रिपुर सुंदरी, पश्चिम-उत्तर में मातंगी तथा उत्तर-पूर्व में षोडषी हैं और मैं खुद भैरवी रूप में अभयदान देने के लिए आपके सामने खड़ी हूं।' यही दस महाविद्या अर्थात् दस शक्ति हैं। बाद में माँ दुर्गा ने अपनी इन्हीं शक्तियां का उपयोग दैत्यों और राक्षसों का वध करने के लिए किया। 

माँ काली, दस महाविद्याओं में से प्रथम देवी हैं,तथा यह माँ सती का सर्वाधिक उग्र और विराट स्वरूप है। माँ काली को काल परिवर्तन की देवी माना जाता है। सृष्टि-निर्माण के पूर्व से ही उनका काल अथवा समय पर आधिपत्य रहा है। देवी काली को भगवान शिव की अर्धांगिनी के रूप में दर्शाया गया है। वह श्मशान में निवास करती हैं तथा शस्त्र के रूप में खड्ग एवं त्रिशूल धारण करती है।

देवी माहात्म्य(दुर्गा सप्तशती )के अनुसार, रक्तबीज नामक दैत्य का संहार करने हेतु देवी दुर्गा ने प्रथम महाविद्या का आव्हान कर काली का रुप धारण किया था। रक्तबीज को यह वरदान प्राप्त था कि, भूमि पर जिस ओर भी उसकी रक्त की बूँदे गिरेंगी, उसी ओर उसका एक अन्य रूप जीवित हो उठेगा। भीषण युद्ध में समस्त प्रयत्नों के पश्चात् जब रक्तबीज को परास्त करना असंभव प्रतीत होने लगा, तब देवी दुर्गा ने काली स्वरूप धारण किया तथा भूमि पर स्पर्श होने से पूर्व ही रक्तबीज के रक्त का पान करने लगीं। परिणामस्वरुप रक्तबीज का अन्त हो गया। 

देवी काली को युद्धभूमि में खड़े, अपना एक पग चित अवस्था में लेटे भगवान शिव के वक्षस्थल पर रखे हुये दर्शाया जाता है। भगवान शिव के वक्षस्थल पर पग रखने के कारण देवी की जिह्वा को अचम्भित मुद्रा में बाहर की ओर निकला दर्शाया जाता है। वह श्याम वर्ण की हैं तथा उनके मुखमण्डल पर उग्र एवं निष्ठुर भाव हैं। उन्हें चतुर्भुज रूप में दर्शाया जाता है।

देवी अपने ऊपर के एक हाथ में रक्तरंजित खड्ग लिये हुये हैं तथा उनके दूसरे हाथ में एक दैत्य का नरमुण्ड है। अन्य एक हाथ में खप्पर  है, जिसमें राक्षस के मुण्ड से टपकता रक्त एकत्रित होता है। अन्तिम हाथ वरद मुद्रा में रहता है। उन्हें नग्नावस्था में गले में नरमुण्डों की माला धारण किये हुये चित्रित किया जाता है। वह कमर में कटी हुई, नर-भुजाओं की करधनी धारण करती हैं। प्रथम महाविद्या देवी काली के विविध स्वरूपों में उन्हें, ऊपरी एक हाथ को वरद मुद्रा तथा निचले एक हाथ में त्रिशूल धारण किये हुये चित्रित किया गया है। उनकी रक्तवर्णी जीभ अत्यधिक लंबी है और उस से रक्त टपक रहा है।

शत्रुओं पर विजय प्राप्ति हेतु काली साधना की जाती है। काली साधना शत्रुओं को परास्त तथा उन्हें दुर्बल करने में सहायता करती है। रोग, दुष्टात्माओं, अशुभ ग्रहों, अकाल मृत्यु के भय आदि से मुक्ति तथा काव्य कलाओं में निपुणता हेतु भी काली साधना की जाती है।

प्रथम महाविद्या माँ काली मूल मन्त्र,
"ॐ क्रीं क्रीं क्रीं हूँ हूँ ह्रीं ह्रीं दक्षिणे कालिका,
क्रीं क्रीं क्रीं हूँ हूँ ह्रीं ह्रीं स्वाहा॥"

भगवान शिव की भांति प्रथम महाविद्या माँ काली की तीन आंखें हैं। यह स्वरुप भगवान शिव के समान ही है, ये भी भगवान शिव के समान शीघ्र प्रसन्न और क्रोधित हो जाती हैं। भगवान शिव के क्रोधित अवतार को रुद्र अवतार कहा जाता है, और मां काली भी रुद्र अवतार हैं। माँ काली का स्वभाव अपने भक्तों पर शीघ्र प्रसन्न होने वाला और दुष्टों पर अविलम्ब कुपित होने वाला है।

काली महाविद्या को समय और परिवर्तन की देवी माना जाता है, मान्यता है कि ये समय से परे हैं। उनकी तीन आंखें भूतकाल, भविष्यकाल और वर्तमानकाल को दिखाती हैं। ब्रह्मांड में समय हमेशा गतिमान है, जिसका प्रतिनिधित्व माँ का यह रुप करता है।

प्रथम महाविद्या माँ काली का यह रौद्र स्वरुप दुष्टों, पापियों और अधर्मियों को अत्यधिक भयाक्रांत करने वाला है। इस स्वरुप से माँ का आशय है, कि जब अधर्म बहुत बढ़ जाएगा तो माँ चंडी का रुप धारण कर आततायियों का वध करेंगी।

प्रथम महाविद्या माँ काली का यह स्वरुप अपने भक्तों को अभय प्रदान करता है। माँ का एक हाथ अभय मुद्रा में है, वह अपने भक्तों के मन से भय को दूर करने और आत्म-विश्वास को बढ़ाने प्रतीक है।माँ का एक हाथ आशीर्वाद मुद्रा में है,इससे वह भक्तों के मन में यह विश्वास प्रकट करती हैं, कि उनका यह रौद्र रुप केवल पापियों और दुष्टों के लिए ऐंसा है, जबकि भक्तों के ऊपर उनका वरद हस्त सदैव बना रहेगा।

डॉ. आनंद सिंह राणा,

इतिहास संकलन समिति महाकौशल प्रांत