भारतीय स्वातंत्र्य समर में क्रांति की अग्निशिखा : वीरांगना दुर्गा भाभी
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वीरांगना दुर्गा भाभी का भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में योगदान.
भगत सिंह और अन्य क्रांतिकारियों को सुरक्षा और मार्गदर्शन प्रदान.
शिक्षा और समाज सेवा में भी अद्वितीय योगदान.
Jabalpur / भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास लेखन में कांग्रेस के दरबारी इतिहासकारों और उसके द्वारा रोपित वामपंथी इतिहासकारों ने तथाकथित गांधीवाद की आड़ में लिखे एकांगी इतिहास में उन्हीं छद्म नायकों को स्थान दिया, जो उनके इर्द-गिर्द रहते थे,परंतु वहाँ भी नारी नायिकाओं के साथ उचित न्याय नहीं हुआ! वैंसे भारत के इतिहास का सच तो यही है किसी भी कालखंड में नारी नायिकाओं के साथ उचित न्याय हुआ ही नहीं, जो अब स्वाधीनता के अमृत काल में हो रहा है।
रहा सवाल! क्रांतिकारी आंदोलन के नायक एवं नायिकाओं के अवदान को इतिहास में रेखांकित करने का तो, उत्तर में सभी को आतंकवादी या अराजकतावादी बताकर खारिज कर दिया गया । जिसका प्रतिउत्तर और उन्मूलन समय रहते नहीं किया गया तो भावी पीढ़ियां सदैव गुमराह ही रहेंगी! एतदर्थ समाज और इतिहास की तलहटी में छिपे और वर्षों से हमारी आँखों से ओझल पहलुओं को सामने लाने की दिशा में एक सद्प्रयास है।
वीरांगना परम श्रद्धेय, दुर्गा भाभी तथाकथित सुनहरे इतिहास के पन्नों में लुप्तप्राय एक सुनहरा व्यक्तित्व है। यूँ तो भारतीय इतिहास के पन्नों में,भारत के स्वाधीनता संग्राम में भाग लेने वाले अनेक स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के नाम दर्ज़ किए गए, लेकिन ऐसे बहुत से महान् सेनानी भी हैं, जिन्होंने ना केवल अपना पूरा जीवन इस संघर्ष के नाम किया, वरन् इस संघर्ष को सफल बनाने में भी अपना अद्भुत एवं अद्वितीय योगदान दिया है, और इस संग्राम में अग्रणी रहने का श्रेय लेने की अपेक्षा पर्दे के पीछे रह कर अपने अग्रणियों को आगे बढ़ने और डटे रहने का साहस प्रदान किया।
लेकिन दुर्भाग्यवश! इन्हें ना तो हमारे इतिहास के पन्नों पर उचित स्थान दिया गया और ना ही इनके बलिदान को वो सम्मान मिल सका, जिनके ये अधिकारी थे और वे महत्वपूर्ण व्यक्तिव धीरे-धीरे हमारे सुनहरे इतिहास की चमक से पीछे विस्मृति के गर्भ में समाते से जा रहे हैं। ऐंसी ही विभूतियों में से एक हैं-'वीरांगना दुर्गा भाभी'।
'दुर्गा भाभी' का वास्तविक नाम था- दुर्गावती देवी। इनका जन्म 7 अक्टूबर 1907 में शहजादपुर ग्राम में पण्डित बांके बिहारी के यहां हुआ था। दुर्गावती का विवाह भगवती चरण वोहरा के साथ हुआ। दुर्गावती के पिता जहां इलाहाबाद कलेक्ट्रेट में नाज़िर थे और उनके ससुर शिवचरण जी रेलवे में ऊँचे पद पर तैनात थे।
वोहरा जी, क्रन्तिकारी संगठन एच. एस. आर. ए. के प्रचार सचिव थे। दिल्ली के क़ुतुब रोड में स्थित घर में, वोहरा, विमल प्रसाद जैन के साथ बम बनाने का काम करते थे, जिसमें दुर्गा भी उन लोगों की सहायता करती। प्रारंभिक दिनों में,दुर्गा भाभी सूचना एक स्थान से दूसरे स्थान ले जाने और बम के सामान को लाने पहुँचाने का भी काम करती थी।
16 नवम्बर, 1926 में लाहौर में, नौजवान भारत सभा द्वारा भाषण का आयोजन किया गया, जहां दुर्गावती नौजवान भारत सभा की सक्रिय सदस्य के तौर पर सामने आयीं। दुर्गावती अद्भुत योजना-निर्मात्री थी, जिनकी योजना कभी-भी असफल नहीं होती थी। तत्कालीन समय भगवती चरण कलकत्ता में ही थे, कि 17 दिसंबर, 1928 को लाला लाजपत राय पर जेम्स एंडरसन स्काट के आदेश से लाठी चलाने वाले अंग्रेज पुलिस अधिकारी जॉन सांडर्स का वध कर दिया गया। बरतानिया सरकार ने लाहौर पर तरह-तरह की पाबंदियां थोप दीं।
दुर्गा भाभी अपने तीन वर्षीय अबोध पुत्र के साथ घर पर अकेली थीं कि देर रात किसी ने उनके घर की कुंडी धीरे से खटखटाई। दरवाजा खोला, तो भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु सामने खडे़ थे। उन्हें समझते देर न लगी कि सांडर्स का वध इन्हीं का काम है।
दुर्गा भाभी ने इन लोगों को अपने घर में पनाह दी, पर इतना पर्याप्त न था। उन्हें मालूम था कि जब घर-घर तलाशी ली जा रही हो, तब आज नहीं तो कल पुलिस यहाँ भी आ धमकने वाली है। भगत सिंह और उनके साथियों के पकड़े जाने का तात्पर्य होता, क्रांति की उफनती धारा का रुक जाना। अनिश्चितता के उन्हीं लम्हों में वीरांगना दुर्गावती वोहरा ने एक अत्यंत साहसिक निर्णय लिया। वे भगत सिंह की पत्नी का स्वांग धर उन्हें लाहौर से सुरक्षित बाहर निकाल ले गईं। आज के उत्तर-आधुनिक भारत में भी ऐंसे कार्य को दुस्साहस ही कहा जाएगा।
भगत सिंह अगर उस दौरान जीवित बच सके, तो उसके पीछे दुर्गावती का दृढ़ निश्चय और असीम साहस था। उनके पतिदेव जो धन गाढ़े समय के लिए उन्हें सौंप गए थे, वह भी क्रांतिकारियों की राह सुगम करने में व्यय हो गया। उन दिनों पांच हजार की रकम बहुत बड़ी राशि मानी जाती थी।
भगवती चरण वोहरा और दुर्गा भाभी का रिश्ता अनूठे विश्वास और साहचर्य का था। इसीलिए उनकी भूमिका केवल क्रांतिकारियों की सहयोगी भर की नहीं थी। दुर्गावती वोहरा को भारत की अग्नि भी कहा जाता है। यह दुर्गा भाभी ही थीं जिन्होंने अपने पति के बम कारखाने पर छापा पड़ने के बाद, क्रांतिकारियों के लिए ‘’पत्र मंजूषा" का काम किया।
जुलाई 1929 में, उन्होंने भगत सिंह की तस्वीर के साथ लाहौर में एक जुलूस का नेतृत्व किया और उनकी रिहाई की मांग की। इसके कुछ सप्ताह बाद, 63 दिनों तक भूख हड़ताल करनेवाले जातिंद्र नाथ दास की जेल में ही बलिदान हो गया था। ये दुर्गा देवी ही थीं, जिन्होंने लाहौर में उनका अंतिम संस्कार करवाया।
भगवती चरण ने उन्हें भलीभाँति बंदूक चलाना सिखाया था। 8 अक्टूबर, 1930 को उन्होंने दक्षिण बंबई के लैमिंग्टन रोड पर स्थित पुलिस स्टेशन के आगे एक ब्रिटिश पुलिस सार्जेंट और उसकी पत्नी पर गोली चला दी थी। यह कदम उन्होंने भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को एक दिन पहले सुनाई गई फांसी की सजा के प्रतिकार में उठाया था।
बरतानिया सरकार के लिए यह बडे़ आश्चर्य की बात थी कि कोई महिला इतनी दुस्साहसी कैसे हो सकती है? फलस्वरूप सारा अमला उनके पीछे लग गया और वह अंतत: सितंबर 1932 में गिरफ्तार कर ली गईं। यद्यपि उस गोलीकांड में उनकी भूमिका पर कुछ सवाल उठाए गए, परन्तु इससे उनकी वीर गाथा पर अंतर क्या पड़ता है? दुर्गा भाभी, बरतानिया सरकार की आंखों में कितना खटकती थीं, इसका खुलासा तत्कालीन इंस्पेक्टर जनरल ऑफ पुलिस एसटी होलिन्स की पुस्तक नो टेन कमांडेंट्स से भी होता है।
इस बीच दो वर्ष पूर्व 28 मई, सन् 1930 को भगवती चरण वोहरा का रावी नदी के तट पर बम बनाते समय हुए विस्फोट में ही बलिदान हुआ था। दुर्गा भाभी को उनके आखिरी दर्शन तक प्राप्त नहीं हुए थे, पर अपने स्वर्गीय पति की प्रेरणा को उन्होंने मरते समय तक संजोए रखा।
क्रांतिकारी उन्हें भाभी भी इसीलिए कहते कि वह उनके अग्रज भगवती चरण वोहरा की सहधर्मचारिणी थीं। इस सबके बाद दुर्गावती एकदम अकेली पड़ गई, लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और पंजाब के पूर्व राज्यपाल लार्ड हैली को मारने की साजिश रच डाली,जो क्रांतिकारियों का बड़ा दुश्मन था।
1 अक्टूबर,1931 को बंबई के लेमिंग्टन रोड पर दुर्गावती ने साथियों के साथ मिलकर हैली की गाड़ी को बम से उड़ा दिया, जिसके बाद पूरी ब्रिटिश पुलिस दुर्गावती की तलाश में जुट गई। लेकिन वे दुर्गावती को खोज नहीं पाए, 8 अक्टूबर को उन्होंने दक्षिण बॉम्बे में पुनः लैमिंगटन रोड पर खड़े हुए एक ब्रिटिश पुलिस अधिकारी पर हमला किया। यह पहली बार था जब किसी महिला को ‘इस तरह से क्रन्तिकारी गतिविधियों में शामिल’ पाया गया था। इसके लिए, उन्हें सितंबर 1932 में गिरफ्तार कर लिया गया और तीन साल की जेल हुई।
भारत के स्वाधीनता संग्राम में योगदान के अतिरिक्त दुर्गा भाभी ने समाज सेवा के क्षेत्र में भी सराहनीय कार्य किये। सन् 1939 में, उन्होंने मद्रास में मारिया मोंटेसरी (इटली के प्रसिद्ध शिक्षक) से प्रशिक्षण प्राप्त किया। एक साल बाद, उन्होंने लखनऊ में उत्तर भारत का पहला मोंटेसरी स्कूल खोला। इस स्कूल को उन्होंने पिछड़े वर्ग के पांच छात्रों के साथ शुरू किया था।स्वतंत्रता के बाद के वर्षों में दुर्गा देवी लखनऊ में गुमनामी का जीवन जीती रहीं। 15 अक्टूबर, 1999 को 92 साल की उम्र में वे इस दुनिया से विदा लेकर अनंत यात्रा की ओर निकल गयीं।
सदा यही होता आया है कि हमारा इतिहास उन महिलाओं के बलिदान और उनकी बहादुरी को सदैव भूल सा जाता है जिन्होंने तत्कालीन सत्ताधारियों की चाटुकारिता कभी नहीं की। अनेक ऐसी वीरांगनाएं सदैव छिपी ही रह जाती हैं। दुर्गा देवी वोहरा भी उन्हीं वीरांगनाओं में से एक हैं। स्वाधीनता के अमृत काल ऐंसी ही वीरांगनाओं का इतिहास रेखांकित किया जा रहा है। भारत की स्वतंत्रता के लिए मर-मिटने वाली ऐसी वीरांगनाओं को कोटि- कोटि प्रणाम है।
दुर्गा भाभी की मृत्यु हुए, यूँ तो अनेक वर्ष बीत चुके है, लेकिन आज भी उनकी वीरता की कहानी हर हिन्दुस्तानी के ध्यान को आकृष्ट कर,उन्हें गौरवान्वित करती है। दुर्गावती प्रतीक हैं, नारी के सशक्त रूप की और सच्चे देश भक्त की, जिनके लिए क्रांति का तात्पर्य केवल सत्ता का तख्ता पलट करना मात्र नहीं था।उनके लिए वास्तविक क्रांति का तात्पर्य था,स्वाधीनता के बाद एक सशक्त देश की नींव डालना, एक शिक्षित समाज का निर्माण करना और यही कारण था कि दुर्गावती ने शुरु से ही गरीब बच्चों को पढ़ाने का नेक काम शुरु किया, जिसे उन्होंने जीवन पर्यन्त स्थिर रखा। दुर्गा भाभी की यही कार्य-प्रणाली और दूरदृष्टि उनके व्यक्तित्व को महान और अविस्मरणीय बनाती है।
डॉ. आनंद सिंह राणा,
श्रीजानकीरमण महाविद्यालय इतिहास संकलन समिति महाकौशल प्रांत.