'काल विभाजन के नामकरण के संदर्भ में समावेशी काल नाम की सारगर्भिता' पर हिंदी साहित्य विषयक राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन

Sun 12-Oct-2025,05:06 PM IST +05:30

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'काल विभाजन के नामकरण के संदर्भ में समावेशी काल नाम की सारगर्भिता' पर हिंदी साहित्य विषयक राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन Samaveshi Sahitya Sansthan national seminar 2025
  • समावेशी साहित्य संस्थान की दूसरी राष्ट्रीय आभासी संगोष्ठी का आयोजन.

  • अध्यक्षता डॉ. अखिलेश निगम ‘अखिल’ एवं मुख्य वक्तव्य डॉ. सरिता चौहान द्वारा.

  • साहित्य, पत्रकारिता और अनुवाद की समावेशी भूमिका पर विचार-विमर्श.

Uttar Pradesh / Lucknow :

Lucknow / समावेशी साहित्य संस्थान की मासिक आभासी दूसरी राष्ट्रीय संगोष्ठी दिनांक: 12 अक्टूबर 2025 को 'काल विभाजन के नामकरण के संदर्भ में समावेशी काल नाम की सारगर्भिता' (हिंदी साहित्य के संदर्भ में) विषय पर उप-महानिरीक्षक, उत्तरप्रदेश पुलिस मुख्यालय, लखनऊ तथा साहित्यकार एवं समाज सुधारक डॉ. अखिलेश निगम 'अखिल' की अध्यक्षता में आयोजित की गई।

सर्वप्रथम स्वागत उद्बोधन में डॉ. रौबी फौजदार, वरिष्ठ अनुवाद अधिकारी, मध्य रेलवे, नागपुर ने सभी आगंतुक विद्वतजन का संक्षिप्त परिचय देते हुए अभिनंदन एवं स्वागत कर, समावेशी साहित्य संस्थान का परिचय दिया व पटल के लिए संगोष्ठी विषय को खोला।

तदोपरांत, उमेश कुमार प्रजापति ‘अलख’ ने कुशल मंच संचालन करते हुए मुख्य वक्ता डॉ. सरिता चौहान, सह आचार्या एवं विभागाध्यक्षा, हिंदी विभाग, मेहर चंद महाजन डीएवी महिला महाविद्यालय, चंडीगढ़ का परिचय देते हुए आमंत्रित किया गया। मुख्य वक्ता डॉ. चौहान ने अपने वक्तव्य में 'विभाजन के नामकरण संदर्भ में समावेशी काल नाम की सारगर्भिता' विषय पर अपने बृहद अनुभव एवं विचारों से विषयगत सभी आभासी श्रोताओं को विस्तारपूर्वक व्याख्यान से लाभांवित किया। उन्होंने कहा कि समावेशी काल विभाजन एवं नामकरण की सारगर्भिता इसमें है कि यह विद्वत्तापूर्ण बंधुत्व एवं प्रेम भावना का सुंदर समावेशी पटल है। सन 2000 से प्रारंभ यह समावेशी काल साहित्य के सभी विषयों के चुनाव, छंदमुक्त-छंदयुक्त काव्य, गद्य साहित्य, विमर्श तथा अन्य प्रवासी साहित्य आदि की सभी विधाओं को समाए हुए है।  भाषाओं और बोलियों के प्रति संवेदनशीलता को समेटे है। डॉ. सरिता चौहान द्वारा काल विभाजन की आवश्यकताओं व मानदंडों पर प्रकाश डालते हुए, इसके विभाजन-नामकरण को बहुत सुंदर शब्दों में प्रदर्शित किया गया, साथ ही इसके काल विभाजन व नामकरण की सार्थकता, आवश्यकता, महत्ता व प्रासंगिकता को प्रमाणित करार दिया गया। उन्होंने समावेशी साहित्य संस्थान की सकारात्मक सोच को उचित एवं सारगर्भिता से परिपूर्ण, सराहनीय एवं प्रशंसनीय कदम बताया जो साहित्य की विविधता को एकता के सूत्र में पिरोता है।

मार्गदर्शक समिति के प्रो. हरिशंकर मिश्र जी ने समावेशी साहित्य के मानदंडों के विषय में बोलते हुए, साहित्यिक पत्रकारिता एवं संपादकीय पर प्रकाश डाला। विशेषत: समावेशी काल की परिस्थितियों- सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, आर्थिक, साहित्यिक, अखिल भारतीयता तथा वैश्विक परिस्थितियों पर संक्षिप्त विचार रखे।

मौलिक प्रश्नावली सत्र के दौरान डॉ. हरदीप कौर ने बहुत ही प्रासंगिक प्रश्न उठाया जिसमें पत्रकारिता को समावेशी युग में स्थान है या नहीं?  के संबंध में पूछा। मुख्य वक्ता डॉ. सरिता चौहान ने उत्तर देते हुए साहित्य और पत्रकारिता के अंतर संबंध पर प्रकाश डाला। प्रश्न के उत्तर में डॉ मार्तंड जी ने भी पत्रकारिता के अनुभव को साझा किया तथा साथ ही अपनी पत्रिका 'साहित्य त्रिवेणी'  के लिए समावेशी साहित्य काल विभाजन एवं नामकरण तथा समावेशी युग में हिंदी के विकास व संभावनाओं पर शोधार्थियों, अध्येताओं एवं विद्वतजन से समावेशी साहित्य संदर्भ में विशेषांक हेतु लेख आमंत्रित किए गए। डॉ. संदीप जी ने कहा कि पत्रकारिता जगत में सभी पत्रिकाओं को न सही किंतु 'मैत्री' जैसी कतिपय पत्रिकाओं को अवश्य शामिल किया जाना चाहिए। डॉ. आनंद, डॉ. अशोक कुमार 'मंगलेश' ने अनुवाद प्रक्रिया व क्षेत्रीय बोलियों की ओर ध्यान आकर्षित कर अनुवाद के महत्त्व पर प्रकाश डाला तथा समावेशी साहित्य एवं संस्थान को वैश्विक पटल पर स्थापित करने के लिए अनुवाद को सशक्त माध्यम बताया।

अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में समावेशी साहित्य संस्थान के संस्थापक अध्यक्ष डॉ. अखिलेश निगम 'अखिल' ने आज की संगोष्ठी का मूल्यांकन एवं विश्लेषण प्रस्तुत करते हुए काल विभाजन और इसके नामकरण की महत्ता, प्रासंगिकता तथा सारगर्भिता पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि आज हम जो एक विचारधारा के लोग मंत्रणा कर रहे हैं, इससे आने वाला समय व पीढ़ी अवश्य लाभान्वित होगी। इस काल विभाजन व नामकरण की सार्थकता को स्थापित करना करना हम सबका दायित्व व आज की आवश्यकता है। समावेशी काल की सबसे बड़ी बात है कि यह हेय दृष्टि से कोसों दूर, सम्भाव-समदृष्टि से अनेकता में एकता को बांधे रखने में समर्थ है। उन्होंने आगे कहा कि समावेशी काल की गणना 21वीं सदी अथवा सन 2001 से प्रारंभ मानी जाए और इसके प्रथम दशक को 'विमर्श युग' के नाम से जाना जाए। समावेशी काल में विमर्श युग इसका एक अभिन्न अंग है। पत्रकारिता और साहित्य के अटूट संबंध पर अपने विचार रखते हुए कहा कि साहित्य में अखबार नविशी से इतर साहित्यिक पत्रकारिता को समाहित किया जाए। उन्होंने कहा कि समावेशी साहित्य में सामाजिक, सांस्कृतिक, मानव जीवन और समस्या, मानवीय संवेदना, प्रेम भावना, राष्ट्र-भावना, हिंदी के विकास, प्रचार-प्रसार, हिंदी की स्थिति-परिस्थिति, भाषा की विभिन्न बोलियों, शिल्प, अनुवाद की संभावना एवं महत्त्व पर साहित्य सृजन होना चाहिए। इस आभासी संगोष्ठी के माध्यम से अध्यक्ष डॉ. अखिलेश निगम जी ने समावेशी विचारधारा के सभी साहित्यिक संगठनों, संस्थानों, पत्र-पत्रिकाओं, भाषा-भाषियों को समावेशी संस्थान के मंच पर खुला आमंत्रण दिया। पटल से पत्रिका 'साहित्य त्रिवेणी', 'शोधादर्श', 'अभिव्यक्ति' तथा 'कर्मनिष्ठा' के सहयोग की सराहना की।

इसके अतिरिक्त मार्गदर्शन समिति सदस्य डॉ. ए. अच्युतन, डॉ. सी. जयशंकर बाबु, परामर्श समिति के डॉ. दिनेश चंद्र अवस्थी, डॉ. मोहन तिवारी आनंद, डॉ. राजनरायण अवस्थी, संपादन समिति के श्री कुँवर वीर सिंह मार्तंड, डॉ. राजीव रंजन प्रसाद, श्री अमन कुमार त्यागी तथा कार्यक्रम संयोजन एवं सहयोगी समिति के डॉ. एन. लक्ष्मी, डॉ. मनोज कुमार सिंह, डॉ. अशोक कुमार 'मंगलेश',  डॉ. जी. एस. सरोजा, श्री जनमेजय कुमार सिंह, तकनीकी सहयोग श्री उमेश कुमार प्रज्ञापति, डॉ. संदीप कुमार वर्मा आदि की गरिमामयी उपस्थित रही।

विधिक सलाहकार एवं धन्यवाद ज्ञापनकर्ता डॉ. सूर्य नारायण शूर ने आभासी पटल पर उपस्थित अतिथिगण, विद्वजन, अध्येता, शोधार्थी और श्रोता रूप में जुड़े सभी श्रोताओं का आभार एवं धन्यवाद ज्ञापित किया। आभासी संगोष्ठी पटल पर शोधार्थी, अध्येता व श्रोतागण आदि की भरपूर उपस्थित रही और वक्ताओं के उपादेय व महत्वपूर्ण वक्तव्यों से बहुत लाभान्वित हुए।