इस नरसंहार में मारे गए लोगों में बाबूलाल उरांव (40), उनकी पत्नी सीता देवी (35), वृद्ध मां सातो देवी (65), बेटा मंजीत (25) और उसकी पत्नी रानी देवी (20) शामिल हैं। इस पूरे हत्याकांड का चश्मदीद रहा इस परिवार का एकमात्र जीवित बच्चा – सोनू (15 वर्ष), जो किसी तरह मौके से भागकर अपनी जान बचा सका। उसी ने सुबह पुलिस को सूचना दी और फिर शवों की तलाश शुरू हुई। डॉग स्क्वाड और स्थानीय पुलिस की मदद से जलकुंभी के नीचे छिपाए गए शवों को पानी से बरामद किया गया।
घटना की जड़ें एक अंधविश्वासी धारणा से जुड़ी हैं। गांव के एक व्यक्ति रामदेव उरांव के बेटे की कुछ दिन पहले बीमारी से मृत्यु हो गई थी और दूसरा बेटा बीमार पड़ा। रामदेव ने मान लिया कि उसके बेटों की हालत के पीछे किसी 'डायन' का हाथ है। इस संदेह की सुई बाबूलाल की मां और पत्नी पर टिक गई। गांव के ओझा-भगतों ने इस धारणा को मजबूती दी, और इन महिलाओं को डायन घोषित कर दिया गया। गाँव की एक पंचायत बुलाई गई, जहाँ ओझाओं की बातों को प्रमाण माना गया और पांच लोगों को मौत की सजा सुना दी गई।
सदियों पुरानी 'डायन प्रथा' आज भी आदिवासी और ग्रामीण समाज में गहरे तक जड़ें जमाए हुए है। महिलाओं को डायन बताकर प्रताड़ित करना, सामाजिक रूप से बहिष्कृत करना, यहां तक कि मार डालना – यह सब अब भी हो रहा है। सातो देवी का वृद्ध होना, उनका बार-बार बुदबुदाना, पूजा-पाठ में लीन रहना जैसे कई सामाजिक पूर्वाग्रह उन्हें 'डायन' घोषित करने के लिए काफी समझे गए। यही अंधविश्वास बहू सीता देवी और रानी देवी पर भी लागू कर दिया गया, जिससे एक ही परिवार की तीन पीढ़ियाँ मिटा दी गईं।
यह घटना सिर्फ एक अपराध नहीं, बल्कि सामूहिक चेतना की असफलता का प्रतीक है। सबसे चिंताजनक बात यह है कि पीड़ित और आरोपी सभी एक ही समुदाय – उरांव जनजाति – के हैं और आपस में रिश्तेदार भी। यह स्पष्ट करता है कि अशिक्षा, सामाजिक कुंठा और अंधविश्वास की जड़ें इतनी गहरी हैं कि वे अपने ही खून को मिटा देने से नहीं हिचकिचातीं।
हालांकि पुलिस ने तीन आरोपियों को गिरफ्तार कर लिया है, जिनमें एक तांत्रिक भी शामिल है, लेकिन गांव के अधिकतर लोग अब भी फरार हैं। यह कानून और समाज दोनों के लिए एक चेतावनी है कि यदि इस तरह की घटनाओं पर समय रहते सख्ती नहीं की गई, तो यह मानसिकता और गहरी होती जाएगी।
अब समय आ गया है कि डायन प्रथा जैसे अमानवीय और स्त्री विरोधी अंधविश्वास पर केवल कानून से नहीं, बल्कि सामाजिक जागरूकता, शिक्षा और समरसता के माध्यम से करारी चोट की जाए। टेटगामा की यह घटना इतिहास का काला अध्याय है, जो तब तक दोहराया जाता रहेगा, जब तक समाज खुद अपनी अंतरात्मा से नहीं जागता।
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