Bhool Chuk Maaf Movie Review | Rajkummar Rao’s Time-Loop Comedy | Maddock Films 2025
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राजकुमार राव और वामीका गब्बी की दमदार परफॉर्मेंस।
टाइम-लूप में फंसी एक अनोखी शादी की कहानी।
बनारस की जीवंत लोकेशन और सामाजिक व्यंग्य।
मड्डॉक फिल्म्स की यह नई ड्रामेडी "भुल चुक माफ" कई अलग-अलग शैलियों को जोड़कर कुछ नया पेश करने की कोशिश करती है, जैसा कि उन्होंने पहले "स्त्री" और उसके सीक्वल में हॉरर और हास्य का मेल दिखाकर किया था – जो राजकुमार राव के करियर की सबसे बड़ी हिट रही।
यह फिल्म बनारस की गलियों, घाटों और बाजारों में एक फंतासी और टाइम-लूप कॉमेडी के रूप में घटित होती है, लेकिन न तो यह पूरी तरह पागलपन से भरपूर है और न ही अपने केंद्रीय प्लॉट को तार्किक रूप से समझा पाती है। एक ऐसे युवक की कहानी, जो एक ही दिन में फंस जाता है और उससे बाहर नहीं निकल पाता, दर्शकों को उलझाकर रखती है। राजकुमार राव ने अपनी भूमिका में भरपूर जान डालने की कोशिश की है, वहीं वामीका गब्बी ने उन्हें अच्छा साथ दिया है, लेकिन फिल्म खुद बार-बार गोल-गोल घूमती है और कहीं नहीं पहुंचती।
मुख्य जोड़ी अपने दम पर फिल्म को संभालने की कोशिश करती है, लेकिन उनकी सफलता क्षणिक है। सीमा पाहवा, रघुबीर यादव, संजय मिश्रा (स्पेशल अपीयरेंस में) और इश्तियाक खान जैसे मंजे हुए कलाकारों की उपस्थिति के बावजूद, निर्देशक करन शर्मा की स्क्रिप्ट इतनी बिखरी हुई और बनावटी है कि ये कलाकार भी उसे संभाल नहीं पाते। सीमा पाहवा एक मजबूत मां की भूमिका में कुछ असर छोड़ती हैं, जबकि संजय मिश्रा एक चालाक नौकरी दिलाने वाले दलाल के किरदार में थोड़ी चमक लाते हैं। लेकिन फिल्म को जरूरत थी एक मजबूत कहानी की रीढ़ की, जो पूरी तरह गायब है।
फिल्म का टोन बेहद अस्थिर है – कभी यह मजाकिया बनने की कोशिश करती है, तो कभी गंभीरता ओढ़ लेती है। प्रेम और पारिवारिक झगड़ों के बीच धार्मिक उपदेश भी डाले गए हैं, जिससे कहानी का बहाव और कमजोर हो जाता है। नायक ईश्वर से मन्नत मांगता है, लेकिन जब उसे निभाने का समय आता है, तो वह कुछ नहीं करता।
लेखक भी नायक की तरह भ्रमित हैं – जैसे-जैसे कहानी आगे बढ़ती है, वह और उलझती जाती है। स्क्रिप्ट में बेतुके ट्विस्ट डाले गए हैं, जो फिल्म को और कमजोर कर देते हैं। कहानी में कई पात्र हैं, लेकिन किसी का भी विकास ऐसा नहीं हुआ कि दर्शक उनके साथ जुड़ सकें।
राजकुमार राव का किरदार रंजन तिवारी, एक बनारसी लड़का है जो सरकारी नौकरी की तलाश में है ताकि वह अपनी प्रेमिका तितली (वामीका गब्बी) से शादी कर सके। तितली के पिता (जाकिर हुसैन) उसे दो महीने का अल्टीमेटम देते हैं – नौकरी मिल जाए तो शादी, वरना भूल जाओ। रंजन और उसका दोस्त ‘मामा’ (इश्तियाक खान) एक दलाल भगवान दास (संजय मिश्रा) के पास जाते हैं, जो रिश्वत लेकर गायब हो जाता है।
आखिरकार शादी तय हो जाती है, लेकिन ऐन मौके पर अजीब घटना घटती है – रंजन एक टाइम लूप में फंस जाता है, और बार-बार हल्दी की रस्म से शुरू होकर एक ही दिन में अटक जाता है। फिल्म में दिलचस्प किरदार हैं, लेकिन किसी को भी विश्वसनीय गहराई नहीं दी गई है। रंजन की मां, जो आचार बेचकर घर चलाती है, और उसका लापरवाह पिता (रघुबीर यादव) – दोनों किरदारों को ठीक से गढ़ा नहीं गया।
जब मां गुस्से में सबको जिम्मेदारियों की याद दिलाती है, तो पिता कहता है – "रविवार है, समाज छुट्टी पर है।"
तितली, फिल्म की महिला किरदार के रूप में मज़बूत और समझदार दिखाई जाती है, लेकिन रंजन की इस उलझन में वह भी बेबस नजर आती है। बनारस की खूबसूरती और उथल-पुथल को सिनेमैटोग्राफर सुधीप चटर्जी ने बखूबी दिखाया है, लेकिन उन लोकेशनों का इस्तेमाल प्रभावशाली दृश्यों के लिए नहीं हो पाया।
एक "सरप्राइज़" बैचलर पार्टी का दृश्य भी फिल्म में जोड़ा गया है, लेकिन वह भी बिना असर छोड़े खत्म हो जाता है – न कोई धमाका, न कोई उद्देश्य।
निष्कर्ष
"भुल चुक माफ" एक कमज़ोर विचार पर बनी फिल्म है, जिसे सही दिशा में विस्तार नहीं मिल पाया। इसका कॉमिक और फैंटेसी मिश्रण दर्शकों को उलझाकर छोड़ देता है। फिल्म का उद्देश्य भले ही बड़ा रहा हो, लेकिन उसके पास उसे निभाने का साधन नहीं था। नतीजा – भुल चुक की ऐसी भरमार जिसे नज़रअंदाज़ करना मुश्किल है और माफ़ करना नामुमकिन।