RSS | विजयादशमी में संघ की स्थापना का हेतु और शताब्दी वर्ष
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विजयादशमी पर 1925 में RSS की स्थापना का महत्व.
डॉ. हेडगेवार और शक्ति उपासना की मूल अवधारणा.
संघ एक संगठन नहीं, बल्कि समाज परिवर्तन का आंदोलन.
व्यक्ति निर्माण से राष्ट्र निर्माण की RSS की नीति.
Jabalpur / विश्व का इतिहास इस बात का साक्षी है, कि भारत माता की गोद में पल्लवित और पुष्पित होता हुआ सनातन हिंदू राष्ट्र अजर, अमर, अखंड, नित्य नूतन और चिर पुरातन है, इसलिए विश्व की अपकारी शक्तियों को खटकता रहा है। वर्तमान संदर्भ में ये अपकारी शक्तियाँ - तथाकथित सेक्युलर, कल्चरल मार्क्सिज्म, ईसाई मिशनरीज, आतंकवाद, विभाजनकारी शक्तियाँ, गजवा-ए-हिंद, वामी,और अन्य ग्लोबल फोर्सज के रुप में आसुरी प्रवृत्तियों से ओत -प्रोत होकर षडयंत्रपूर्वक विभेद उत्पन्न कर सनातन हिंदू राष्ट्र को विश्रृंखलित कर विनाश करना चाहती हैं, तब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इनके उन्मूलन के लिए सीना तान के खड़ा है और राष्ट्र रक्षा के लिए सर्वस्व अर्पित कर,भारत को परम वैभव पर पहुँचाने के लिए कटिबद्ध है।
इतिहास साक्षी है कि जब भी सनातन पर संकटों के कृष्ण मेघ आच्छादित होते हैं और अधर्म बढ़ता है, तो उनके उन्मूलन के लिए भारत माता स्वमेव अपने गर्भ से असाधारण शक्तियों को जन्म दे ही देती हैं, इस कड़ी में भगवान श्रीराम और भगवान श्रीकृष्ण का अवतरण हुआ तो वहीं हमारे ऋषि, मुनियों और महारथियों का जन्म हुआ जिन्होंने विभिन्न कालखंडों में भारत माता की रक्षा कर परम वैभव तक पहुंचाया है। मातृभूमि की पूजा, मान - सम्मान और सर्वोच्चता के आलोक में श्री राम ने लक्ष्मण से कहा था कि अयोध्या के सामने स्वर्णमयी लंका मुझे अच्छी नहीं लगती है क्योंकि "जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।''
इन्हीं महान उद्देश्य को लेकर विजयादशमी पर्व पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की गई थी, क्योंकि इस्लामिक आक्रांताओं और बरतानिया शासन के दौरान भारत माता की दुर्दशा हो गई थी और हिंदुत्व का पतन हो रहा था।
एतदर्थ भारत माता के परम वैभव की पुनर्स्थापना के लिए विजयादशमी के दिन ही सन 1925 में संघ की स्थापना हुई परन्तु राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपना स्थापना दिवस नहीं मनाता। वह विजयादशमी उत्सव मनाता है और उसमें शक्ति की उपासना करता है। स्थापना के एक वर्ष बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का नामकरण हुआ था।
संघ संस्थापक परम पूज्य डॉ. हेडगेवार साहब ने तीन वर्ष बाद व्यास पूर्णिमा के दिन तय किया कि ध्वज ही गुरु है। संघ के आद्य संस्थापक डॉ. केशवराव बलिराम हेडगेवार ने कहा था कि हम जन्म दिवस मनाने के लिए संघ की स्थापना नहीं कर रहे हैं। हम शक्ति की उपासना के लिए संघ की स्थापना कर रहे हैं।
परम पूज्य डॉ.साहब कहा करते थे, कि संघ कोई समाज से अलग संगठन नहीं रहेगा। ऐसा काम करेंगे कि आने वाले समय में संघ को समाज में विलीन हो जाना चाहिए। आज समाज जाग चुका है। समाज में जो आसुरी शक्ति है उसका नाश करते हुए सज्जन शक्ति को बढ़ाना है। शाखा का विस्तार करना है। नगर के हर मोहल्ले में भारत माता की जय बोलने वाला व्यक्ति हो। स्थिति ऐसी है कि पूरी दुनिया हमारी ओर देख रही है। हमें फिर से भारत को विश्व गुरु बनाना है।
इन्हीं आदर्शो के आलोक में संघ के शताब्दी वर्ष के परिप्रेक्ष्य में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर संघचालक मोहनराव भागवत का कथन – "आरएसएस का शताब्दी वर्ष मनाने की कोई जरूरत नहीं है। संघ इसे संगठन का अहंकार बढ़ाने के लिए नहीं कर रहा है। संघ किसी संगठन के 100 साल पूरे होने का जश्न मनाने और कुछ उपलब्धियों का ढिंढोरा पीटने नहीं आया है।” मार्गदर्शी है।
संघ की रीति-नीति में महान् सनातन के आदर्श निहित हैं, मातृभूमि सर्वोपरि है, इसलिए शक्ति की उपासना और विजयादशमी के निहितार्थ की कथा समझना अपरिहार्य है। विजयादशमी पर्व के अद्भुत वृतांत का उद्देश्य केवल धार्मिक नहीं है, वरन् अहम की मनोवृत्ति को समझाना है कि- अहम ही अधर्म का मूल है और अहम ही सर्वनाश की जड़ है।
विजयादशमी पर्व के आलोक में, मेरा विचार है कि "सत्य और असत्य का अद्वैत ही सत्य है, असत्य एक भ्रम है और असत्य का असत्य होना भी सत्य होना चाहिए, नहीं तो वह असत्य भी नहीं हो सकता, इसीलिए हर अवस्था में सत्य ही जीतता है।" यही धर्म की परिभाषा है। यही विजयादशमी है। यही संघ की स्थापना का मूल है, यही शक्ति और शस्त्र का भी अद्वैत भाव है।
श्रीराम का जीवन हिंदुत्व के आदर्श का मूल आधार है, उनके जीवन मूल्यों और आदर्शों के आलोक में संघ ने शताब्दी वर्ष में पंच परिवर्तन क्रमशः कुटुंब प्रबोधन, समूहों में सामाजिक समरसता और सद्भाव, भारतीय पर्यावरणीय दृष्टि, स्वदेशी जीवन शैली और नागरिक कर्तव्य बोध का लक्ष्य अवधारित किया है, जो निश्चित ही पूर्ण होगा।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एक आंदोलन है, यह संगठन (ऑर्गेनाइजेशन) नहीं!!! संघ संस्था भी नहीं है, वरन समाज परिवर्तन का आंदोलन है। संघ सर्व समावेशी दर्शन है, एकत्व से बहुत्व की दृष्टि है। यही मूल उपागम है। राष्ट्र का मूल समाज की एकता में है और सभी की जीवन मूल्य की एक ही अवधारणा है। वसुधैव कुटुम्बकम् भारत के जीवन का दृष्टिकोण है और आध्यात्म आधारित जीवन मूल्य है।
सभी को एक मानना हिंदुत्व है, हिंदू इस भारत का राष्ट्रत्व है। इसलिए आध्यात्मिक लोकतंत्र पर विश्वास और आस्था रखता है। परोपकार ही धर्म है, आंखें खोलो, मैं को छोटा करो, हम को विकसित करो - समाज को देना ही धर्म है। धर्म का आधार आध्यात्मिक है, समाज से जितना लिया उससे ज्यादा वापस करना है।
समाज का वैशिष्ट्य हिंदुत्व ही है। सन् 2019 की विजयादशमी के बौद्धिक में सर संघ चालक डॉ. मोहन भागवत ने कहा था कि "स्व" याने हिंदुत्व। विश्व का द्वंदात्मक संघर्ष है हमारा एकात्मकता के लिए संघर्ष है। एक राष्ट्र, एक व्यक्ति, एक संस्कृति और एक विश्व की परिकल्पना है। समाज की समस्याओं का निराकरण करना है समाज की समस्या का निराकरण समाज के द्वारा ही होगा।
संघ बड़ा नहीं होना चाहता, हमारा कोई विरोधी नहीं है समाज शक्तिशाली बनाने का कर्म संघ का है। व्यक्ति निर्माण से राष्ट्र निर्माण की ओर ले जाना, समस्या जहां से उठती है उसका समाधान वहीं खोजना, पुरानी नींव पर नया मकान खड़ा करना, सहकारिता और आत्मनिर्भरता को बढ़ाना। संघ चाहता है कि समाज नेतृत्व करे और सज्जन शक्ति ही समाज की समस्याओं का समाधान करे, सरकार नहीं!!! संपूर्ण समाज कैसे जागृत हो, समाज का आत्मविश्वास बढ़े। संघ कहीं नियंत्रण नहीं करना चाहता है। संघ का स्वयंसेवक नाम और यश से दूर रहता है।
संघ अपने आप को बड़ा बनाने में विश्वास नहीं रखता है, वह श्रेय लेना नहीं वरन् देना चाहता है और देश को परम वैभव पर आसीन कर, अपने योगदान को कभी रेखांकित नहीं करना चाहता है। यदि इतिहास में संघ को श्रेय की दृष्टि से स्थान दिया गया तो यह हमारी असफलता होगी। परंतु संघ शताब्दी वर्ष में संघ के बहुआयामी अवदान को लिपिबद्ध और प्रकाशित किया जाना इसलिए अपरिहार्य हो जाता है, ताकि संघ की नीति-रीति और ध्येय सदैव स्वयंसेवकों के लिए सनद रहे और सम-विषम परिस्थितियों में मार्गदर्शन कर मार्ग प्रशस्त करता रहे।
डॉ.आनंद सिंह राणा,
विभागाध्यक्ष इतिहास विभाग,श्रीजानकीरमण महाविद्यालय एवं इतिहास संकलन समिति महाकौशल प्रांत