जहां बांस बोलता है सुरों की भाषा: पीलीभीत की GI टैग बांसुरी की अनकही कहानी
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पीलीभीत की बांसुरी GI टैग प्राप्त और विश्वविख्यात।
शास्त्रीय और लोक संगीत में प्रयोग, मधुर ध्वनि का प्रतीक।
स्थानीय कारीगरों के लिए आजीविका और सांस्कृतिक विरासत का स्रोत।
AGCNN / उत्तर प्रदेश का पीलीभीत जिला अपनी हरियाली और तराई की पहचान के साथ-साथ उस कला के लिए जाना जाता है, जिसने भारत को वैश्विक संगीत मंच पर एक अलग पहचान दी है। यहां बनने वाली बांसुरी सिर्फ एक वाद्य यंत्र नहीं, बल्कि पीढ़ियों से चली आ रही साधना, परंपरा और सांस्कृतिक विरासत का जीवंत प्रतीक है। बांस का एक साधारण टुकड़ा जब पीलीभीत के कारीगरों के हाथों से गुजरता है, तो वह सुरों में ढलकर दुनिया भर में अपनी आवाज़ बिखेरता है।
पीलीभीत की बांसुरी निर्माण परंपरा सदियों पुरानी मानी जाती है। स्थानीय कारीगर बताते हैं कि बांसुरी बनाना किसी मशीन का काम नहीं, बल्कि अनुभव और संवेदना की मांग करता है। सबसे पहले जंगलों और तराई क्षेत्रों से उपयुक्त बांस चुना जाता है। इसके बाद उसे प्राकृतिक तरीके से सुखाया जाता है, ताकि उसमें दरार न पड़े। फिर बारीक नाप-जोख के साथ छेद किए जाते हैं, क्योंकि छेदों की जरा-सी गड़बड़ी भी सुर को बिगाड़ सकती है।
यही बारीकी और मेहनत पीलीभीत की बांसुरी को खास बनाती है। शास्त्रीय संगीत से जुड़े कलाकार हों या लोक संगीत के साधक, सभी इस बांसुरी को अपने सुरों के लिए भरोसेमंद मानते हैं। देश के बड़े संगीत मंचों से लेकर विदेशी प्रस्तुतियों तक, पीलीभीत की बांसुरी अपनी मधुर ध्वनि के लिए पहचानी जाती है। इस विशिष्टता को मान्यता तब मिली, जब इसे भौगोलिक संकेतक यानी GI टैग प्रदान किया गया।
बांसुरी यहां केवल कला नहीं, बल्कि आजीविका का साधन भी है। पीलीभीत और आसपास के इलाकों में सैकड़ों परिवार इस शिल्प से जुड़े हैं। घरों के आंगन और छोटी-छोटी कार्यशालाओं में दिनभर बांसुरी बनती रहती हैं। बच्चे बचपन से ही इस कला को सीखते हैं, ताकि पारिवारिक विरासत आगे बढ़ती रहे। इससे स्थानीय अर्थव्यवस्था को भी मजबूती मिलती है।
पर्यटन के लिहाज से भी पीलीभीत धीरे-धीरे खास मुकाम बना रहा है। संगीत प्रेमी और कला के कद्रदान यहां आकर न केवल बांसुरी खरीदते हैं, बल्कि उसकी निर्माण प्रक्रिया को करीब से देखते हैं। कई पर्यटकों के लिए यह अनुभव यादगार होता है, जब वे अपनी आंखों के सामने बांस के टुकड़े को सुरों में बदलते हुए देखते हैं।
हालांकि आधुनिक दौर में इस पारंपरिक शिल्प के सामने चुनौतियां भी हैं। मशीन से बने सस्ते वाद्य यंत्रों की बढ़ती उपलब्धता और कच्चे बांस की कमी कारीगरों के लिए चिंता का विषय है। इसके बावजूद पीलीभीत के बांसुरी निर्माता अपनी कला को जीवित रखने के लिए लगातार प्रयास कर रहे हैं। उन्हें उम्मीद है कि GI टैग और बढ़ती जागरूकता से आने वाले समय में इस शिल्प को और संरक्षण मिलेगा।
पीलीभीत की बांसुरी यह संदेश देती है कि जब स्थानीय हुनर, परंपरा और साधना एक साथ जुड़ते हैं, तो उनकी गूंज सीमाओं से बाहर तक पहुंचती है। यह सिर्फ एक वाद्य यंत्र नहीं, बल्कि भारतीय सांस्कृतिक आत्मा की वह आवाज़ है, जो बांस के माध्यम से दुनिया से संवाद करती है।