कार्तिक पूर्णिमा पर विशेष- त्रिपुरासुर के वध के उपरांत शुरु हुई देव दीवाली और दीपदान की परंपरा

Wed 05-Nov-2025,11:55 PM IST +05:30

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कार्तिक पूर्णिमा पर विशेष- त्रिपुरासुर के वध के उपरांत शुरु हुई देव दीवाली और दीपदान की परंपरा Tripurasur Vadh story Jabalpur
  • कार्तिक पूर्णिमा पर देव दीवाली और दीपदान की परंपरा की शुरुआत​.

  • त्रिपुरासुर वध और त्रिपुरी (जबलपुर) का पुराणों में उल्लेख​.

  • काशी में देवताओं के आगमन और दीपोत्सव की प्राचीन मान्यता​. 

Madhya Pradesh / Jabalpur :

जबलपुर / कार्तिक पूर्णिमा तिथि का हिंदू धर्म में बड़ा माहात्म्य है। कार्तिक पूर्णिमा को भगवान् विष्णु का प्रथम अवतार, मत्स्यावतार के रुप में चारों वेदों और प्रलय से बचाने के लिए आज की संध्या बेला में हुआ था। प्रथम सिख गुरु श्री गुरुनानक देव का अवतरण कार्तिक पूर्णिमा को हुआ था। वहीं देव दिवाली और दीपदान की परम्परा भी कार्तिक पूर्णिमा से ही शुरु हुई थी।

दीपावली के बारे में तो सभी जानते हैं, परन्तु आम जन को कम ही जानकारी होती है, कि देवता भी दीपावली मनाते हैं। जिसे देव दीवाली के नाम से जाना जाता है। यह पर्व देवताओं ने कार्तिक माह की पूर्णिमा को मनाया, तभी से यह पर्व हर साल कार्तिक मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। यह पर्व त्रिपुरी अर्थात् जबलपुर के लिए इसलिए भी खास है क्योंकि त्रिपुरासुर का वध इसी क्षेत्र में किया गया, जिसके बाद देव दीवाली और पवित्र नदियों में दीपदान की परंपरा शुरू हुई।

शास्त्रों के अनुसार त्रिपुरासुर (तारकाक्ष, कमलाक्ष, विद्युन्माली) का साम्राज्य त्रिपुरी (जबलपुर), अवंतिपुर (उज्जैन) और काशी तक था। इनकी तीनों नगरी हवा में तैरती हुई भ्रमण करती थी। लेकिन ये ज्यादातर त्रिपुरी के ऊपर ही रहती थीं। इनका आतंक इतना था कि देव और ऋषि परेशान रहते थे। तब परेशान होकर सभी महादेव की शरण में चले गए। तब अवंतिपुर (उज्जैन) के राजा महाकाल ने त्रिपुरासुर का वध किया। इसका उल्लेख स्कंद पुराण के अर्वत्य खंड, पुद्य पुराण, लिंग पुराण और राजशेखर की बाल रामायण में मिलता है।

ब्रह्मा जी से वरदान मिलते ही मचाया आतंक :
सतयुग में तारकासुर का आतंक इतना बढ़ा कि लोग परेशान हो गए। भगवान भोलेनाथ की आज्ञा से कार्तिकेय ने उसका वध कर दिया। इसके बाद तारकासुर के पुत्र तारकाक्ष, कमलाक्ष, विद्युन्माली का आतंक भी हर तरफ बढ़ने लगा। पिता के वध का बदला लेने के लिए तीनों असुरों ने ब्रह्मा जी की तपस्या शुरू की। त्रिपुरासुर की तपस्या से ब्रह्मा जी प्रसन्न् हो गए और वरदान मांगने कहा। तब तीनों ने ब्रह्मा जी से वरदान मांगा कि हमारी तीनों नगरी (स्वर्ण, रजत, लौह) आकाश में उड़ती रहे और एक हजार साल बाद जब तीनों कुछ पल के लिए एक सीध में आए तभी हमारा विनाश हो। ब्रह्मा जी के तथास्तु कहते ही उसने तीनों लोकों में आतंक मचाना शुरू कर दिया। तीनों नगरी ज्यादा समय त्रिपुरी क्षेत्र में ही रहतीं थीं।

महाकाल ने किया था तीनों नगरी को नष्ट :

त्रिपुरी क्षेत्र वर्तमान जबलपुर शहर के ग्वारीघाट से तिलवाराघाट तक शामिल रहा। कालांतर में यहां शासन करने वाले इसका विस्तार करते गए और यह बड़ा क्षेत्र बन गया। जो महाराष्ट्र, राजस्थान और गुजरात की सीमाओं तक शामिल रहा। कालगणना के अनुसार एक हजार साल बाद त्रिपुरासुर की तीनों पुरी को त्रिपुरी में कुछ समय के लिए एक सीध में मिलना था। तब तीनों असुरों को मारने के लिए महादेव के लिए एक विशेष रथ तैयार किया गया जिसमें सूर्य, चंद्रमा रथ के पहिये बने। अश्व के रूप में इंद्र, यम, कुबेर, वरुण और लोकपाल बने धनुष। पिनाक के साथ हिमालय और सुमेर पर्वत, डोर के रूप में वासुकी और शेषनाग, बाण में भगवान विष्णु और नोक में अग्नि आए। तब महादेव ने श्रीगणेश का आह्वान कर पाशुपत अस्त्र से तीनों पुरियों को एक सीध में स्थापित कर एक ही बाण में विध्वंस कर दिया। इसके बाद त्रिपुरी में शैव मत की स्थापना हुई और त्रिपुर सुंदरी और बटुक भैरव की क्रीड़ास्थली बनी। उधर महादेव ने अवंपिुर का नाम उज्जयिनी रखा। यहीं से दीपदान की प्रथा का शुभारंभ काशी, उज्जयिनी और त्रिपुरी (जबलपुर) के साथ भारत वर्ष में हुआ।

पुराणों और महाकाव्य में मिलता है उल्लेख :
त्रिपुरी प्रारंभ से शिवपुत्री नर्मदा का क्षेत्र रहा है। इसलिए यहां भोलेनाथ की विशेष कृपा रही। त्रिपुरासुर के वध के पश्चात यहां त्रिपुरेश्वर महादेव की स्थापना देवों द्वारा की गई। इसका उल्लेख लिंग पुराण, पद्य पुराण, मत्स्य पुराण, स्कंद पुराण, महाभारत आदि ग्रंथों में मिलता है।

ऐतिहासिक, पुरातात्विक साहित्यिक स्रोतों और जनश्रुति ने इतिहास को समृद्ध बनाया :

त्रिपुरासुर की तीनों नगरी के विध्वंश के बाद स्वर्ण, रजत और लौह की मात्रा विशेष तौर पर इस क्षेत्र में मिलती है। त्रिपुरासुर के वध के बाद अवंतिपुर का नाम उज्जयिनी रखा गया। कार्तिक पूर्णिमा में देव दीवाली और दीपदान की परंपरा प्रारंभ हुई। इसी के तारतम्य में मकर संक्रांति को खिचड़ी परंपरा भी संस्कारधानी से प्रारंभ हुई। महादेव के आशीर्वाद से त्रिपुरी, काशी, और उज्जयिनी शाश्वत नगरी हैं और आज भी जीवंत है।

दूसरा उपाख्यान काशी से जुड़ा है।काशी में देव दीवाली उत्सव मनाये जाने के सम्बन्ध में मान्यता है कि राजा दिवोदास ने अपने राज्य काशी में देवताओं के प्रवेश को प्रतिबन्धित कर दिया था, कार्तिक पूर्णिमा के दिन ही रूप बदल कर भगवान शिव काशी के पंचगंगा घाट पर आकर गंगा स्नान कर ध्यान किया, यह बात जब राजा दिवोदास को पता चली तो उन्होंने देवताओं के प्रवेश प्रतिबन्ध को समाप्त कर दिया। इस दिन सभी देवताओं ने काशी में प्रवेश कर दीप जलाकर दीपावली मनाई थी।

साभार 
डॉ. आनंद सिंह राणा,
इतिहास संकलन समिति महाकौशल प्रांत।