भीड़ में साथ या अकेलेपन का सच? दोस्ती और रिश्तों में भरोसे की टूटती डोर
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भीड़ में अकेलापन और टूटता सामाजिक भरोसा.
स्वार्थ और अपेक्षाओं से कमजोर होती दोस्ती.
सच्चे रिश्तों की पहचान और भविष्य की राह.
AGCNN / आज के समय में दोस्ती और रिश्तों में भरोसे की कमी एक गहरी सामाजिक समस्या बन चुकी है। यह कमी अचानक पैदा नहीं हुई, बल्कि बदलती जीवनशैली, बढ़ती प्रतिस्पर्धा, भौतिक सोच और आत्म-केंद्रित मानसिकता का नतीजा है। हम ऐसे दौर में जी रहे हैं जहाँ “कनेक्शन” बहुत हैं, लेकिन “कनेक्ट” बहुत कम लोग हैं। सोशल मीडिया पर सैकड़ों दोस्त हैं, पर संकट के समय फोन उठाने वाला शायद एक भी नहीं।
वर्तमान पर नजर डालें तो भरोसे की सबसे बड़ी दुश्मन अपेक्षाएं हैं। हम रिश्तों से बिना बोले बहुत कुछ चाहने लगते हैं। जब सामने वाला हमारी उम्मीदों पर खरा नहीं उतरता, तो हम उसे दोषी मान लेते हैं। इसके साथ ही स्वार्थ भी रिश्तों को कमजोर कर रहा है। आज कई रिश्ते सुविधा और जरूरत के आधार पर टिके हैं। जरूरत खत्म, रिश्ता भी खत्म। खासकर आर्थिक मामलों में भरोसा सबसे पहले टूटता है। उधार दिया पैसा लौटे या न लौटे, रिश्ता जरूर बदल जाता है।
अतीत के अनुभव भी भरोसे की कमी को बढ़ाते हैं। एक बार धोखा मिलने के बाद इंसान हर नए रिश्ते को शक की नजर से देखने लगता है। इसके अलावा संवाद की कमी और गलतफहमियाँ छोटी बातों को बड़ा बना देती हैं। लोग खुलकर बात करने के बजाय मन में गांठ बाँध लेते हैं। नतीजा यह होता है कि रिश्ते भीतर ही भीतर खोखले हो जाते हैं।
अगर हम गहराई से देखें तो समस्या की जड़ हमारी परवरिश और सामाजिक संस्कारों में भी छिपी है। हम बच्चों को शुरू से “आगे निकलने” की दौड़ सिखाते हैं, साथ चलने की नहीं। दोस्ती में भी लाभ-हानि का हिसाब सिखाया जाता है। ऐसे में निःस्वार्थ दोस्ती कैसे पनपे? दोस्ती त्याग, समय और भावनात्मक निवेश मांगती है, जो आज सबसे महंगी चीज बन चुकी है।
भविष्य की बात करें तो यदि यही प्रवृत्ति जारी रही, तो समाज और ज्यादा अकेला होगा। मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ भी मानते हैं कि भरोसेमंद रिश्तों की कमी डिप्रेशन, एंग्जायटी और अकेलेपन को बढ़ा रही है। आने वाले समय में रिश्ते “ट्रांजेक्शन” बन सकते हैं, जहाँ भावना से ज्यादा शर्तें होंगी।
लेकिन तस्वीर पूरी तरह अंधेरी भी नहीं है। भविष्य को बेहतर बनाने की जिम्मेदारी हम सब पर है। सबसे पहले आत्म-निर्भरता जरूरी है, ताकि हम हर जरूरत के लिए दूसरों पर बोझ न बनें। साथ ही स्वस्थ सीमाएँ तय करना सीखना होगा। हर किसी को सब कुछ बताना भरोसा नहीं, नासमझी भी हो सकती है। सच्चे रिश्तों की पहचान वही है, जो कठिन समय में बिना शोर किए साथ खड़े रहें।
सबसे जरूरी है संवाद और ईमानदारी। जो दोस्त या रिश्तेदार मुंह पर सच कहने का साहस रखता है, वही असली अपना है। भरोसा धीरे-धीरे बनता है, और टूटने में पल भर लगता है। इसलिए रिश्तों में जल्दबाजी नहीं, समझदारी जरूरी है।
अंत में यही कहा जा सकता है कि जिंदगी में अगर एक भी सच्चा दोस्त मिल जाए, तो वह सौ रिश्तों के बराबर होता है। भविष्य की दुनिया को भरोसेमंद बनाने के लिए हमें फिर से निःस्वार्थ दोस्ती का अर्थ सीखना होगा—वरना भीड़ में अकेले होने की यह पीड़ा और गहरी होती जाएगी।