अरावली पहाड़ियों और खनन पर सुप्रीम कोर्ट व सरकार की स्थिति

Mon 22-Dec-2025,06:35 PM IST +05:30

ताजा खबरों से अपडेट रहने के लिए हमारे Whatsapp Channel को Join करें |

Follow Us

अरावली पहाड़ियों और खनन पर सुप्रीम कोर्ट व सरकार की स्थिति Kailash-Chandra
  • अरावली पर खनन को लेकर फैली खबरें भ्रामक.

  • सुप्रीम कोर्ट के आदेशों से संरक्षण हुआ मजबूत.

  • 90% से अधिक क्षेत्र संरक्षित श्रेणी में.

Madhya Pradesh / Bhopal :

Bhopal / हाल के दिनों में सोशल मीडिया और कुछ यूट्यूब चैनलों पर यह दावा किया गया कि सरकार ने अरावली पर खनन और निर्माण के लिए “ढील” दे दी है। कहा गया कि सुप्रीम कोर्ट ने संरक्षण क्षेत्र की परिभाषा बदलकर इसे कमजोर कर दिया। इसी को लेकर केंद्रीय पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव ने एक वीडियो बयान जारी किया, जिसमें उन्होंने इन आरोपों को गलत और भ्रामक बताया। इस पूरे विषय को समझने के लिए तीन बातें महत्वपूर्ण हैं- (1) अरावली का भौगोलिक तथ्य, (2) सुप्रीम कोर्ट के आदेश, (3) सरकार की नीति और ब्यौरा।

1) अरावली क्या है और क्यों महत्वपूर्ण है?
अरावली भारत की सबसे पुरानी पर्वत श्रृंखलाओं में गिनी जाती है। यह दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान और गुजरात के 39 जिलों तक फैली हुई है। दिल्ली-NCR के लिए अरावली प्राकृतिक ढाल का काम करती है। यह राजस्थान के मरुस्थल (थार) को बढ़ने से रोकती है, भूजल recharge करती है, और हवा के बहाव तथा प्रदूषण नियंत्रण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। NCR की जलवायु, भूजल स्तर, और वायु गुणवत्ता सीधे-सीधे अरावली की स्थिति से प्रभावित होती है।

इसी संवेदनशीलता के कारण अरावली में खनन और निर्माण गतिविधियों पर कई दशकों से नियंत्रण और प्रतिबंध रहे हैं।

2) सुप्रीम कोर्ट के पुराने आदेश: स्थायी रोकें
1980 के दशक से कुछ जनहित याचिकाएँ चलीं, जिनमें अवैध खनन और पर्यावरण क्षति पर रोक की मांग की गई। परिणामस्वरूप

  • वर्ष 2009: सुप्रीम कोर्ट ने हरियाणा के फरीदाबाद, गुरुग्राम और नूंह जिलों की अरावली पहाड़ियों में खनन गतिविधियों पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया। यह प्रतिबंध आज भी जारी है।
  • बाद के आदेश- बाद में कोर्ट ने पूरे अरावली क्षेत्र की वैज्ञानिक मैपिंग और पर्यावरण प्रभाव अध्ययन (EIA) किए बिना नई माइनिंग अनुमति रोकने का निर्देश दिया। पहले वैज्ञानिक सर्वे, फिर पर्यावरण योजना, तभी अनुमति संभव है।

3) वर्ष 2025 के हालिया आदेश: नया विवाद और स्पष्टीकरण
2025 में सुप्रीम कोर्ट ने सभी राज्यों से अरावली की एक समान परिभाषा बनाने को कहा और केंद्र द्वारा प्रस्तुत वैज्ञानिक रिपोर्ट को स्वीकार किया। यही रिपोर्ट विवाद का कारण बनी। कुछ लोग बोले कि अब केवल पहाड़ी की चोटी से ऊपर-ऊपर 100 मीटर की सुरक्षा होगी, यानि नीचे की ओर खनन की छूट मिल जाएगी। परंतु यह एक भ्रम निर्माण किया जा रहा है। सामाजिक वैमनस्य, अस्थिरता, गतिरोध पैदा हो सके इसके लिये इसे भ्रम को फैलाया जा रहा है। उनका कहना है।

  • 100 मीटर नियम का अर्थ

100 मीटर की सीमा पहाड़ी के बेस स्ट्रक्चर से लेकर ऊपर तक है। यदि पहाड़ी का आधार जमीन के भीतर 20 मीटर नीचे तक फैला है, तो संरक्षण की सीमा वहीं से मानी जाएगी। अर्थात चट्टान की पूरी मोटाई और ढलान संरक्षित मानी जाएगी। इससे स्पष्ट होता है कि माइनिंग की छूट नहीं बढ़ी, बल्कि वैज्ञानिक स्पष्टता आई है कि अरावली कहाँ-कहाँ फैली है।

4) संरक्षित क्षेत्र कितना?
सरकार के अनुसार, नई परिभाषा के बाद अरावली क्षेत्र कुल लगभग 1.44 से 1.47 लाख वर्ग किलोमीटर है। इसमें से लगभग 90% हिस्सा संरक्षित श्रेणी में आ जाता है। केवल 0.2% – 2% तक ही सैद्धांतिक रूप से खनन के लिए संभावित बचता है। यह संभावित हिस्सा भी तभी खोदा जा सकता है जब विस्तृत माइनिंग प्लान बने- वैज्ञानिक अध्ययन और पर्यावरण मंजूरी मिले और इंडियन काउंसिल ऑफ फॉरेस्ट्री रिसर्च एंड एजुकेशन (ICFRE) अनुमति दे।

दूसरे शब्दों में देखा जाए तो नई परिभाषा से बड़ी छूट नहीं मिली, बल्कि खनन लगभग नगण्य स्थान तक सीमित हो गया।

5) दिल्ली और NCR का मामला
दिल्ली की पूरी अरावली में खनन पूर्ण रूप से प्रतिबंधित है भविष्य में भी यहां माइनिंग की कोई अनुमति नहीं दी जाएगी। दिल्ली-NCR के संवेदनशील क्षेत्रों में निर्माण परियोजनाओं पर भी सख्त नियंत्रण रहेगा। जहां संदेह हो, उसे अरावली माना जाएगा जब तक वैज्ञानिक सर्वे कुछ और प्रमाण न दें। ये शर्तें संरक्षण नीति को और कठोर बनाती हैं।

6) क्या हर साल नई रोक लगती है?
अक्सर लोग पूछते हैं कि किस वर्ष-किस जिले में खनन रोका गया। सच यह है- रोकें साल-दर-साल नई लागू नहीं होती। बल्कि सुप्रीम कोर्ट के आदेशों के आधार पर कई जगहों पर स्थायी या दीर्घकालिक रोक जारी रहती है। केवल कानूनी रूप से पुरानी खदानें सख्त नियंत्रण के साथ चल सकती हैं। यदि किसी राज्य में वर्षवार विवरण चाहिए, तो संबंधित खान-विभाग या पर्यावरण विभाग द्वारा जारी नोटिफिकेशन और माइनिंग मैप ही आधिकारिक दस्तावेज़ होते हैं।

7) संरक्षण और हरित पहल
सरकार “ग्रीन अरावली” अभियान चला रही है। 39 जिलों में DFO स्तर की मीटिंगें-  स्थानीय पौधों की नर्सरी-  वनीकरण और जल संरक्षण प्रोजेक्ट, 20 से अधिक रिज़र्व फॉरेस्ट, राष्ट्रीय उद्यान और प्रोटेक्टेड एरिया जस के तस सुरक्षित रहेंगे।

सार रूप में, अरावली संरक्षण पर मीडिया में फैली ढील या छूट वाली खबरें भ्रामक हैं। बहुत हद तक कुछ लोग पूर्ववत आरोप लगाकर भाग जाओ खेल रहे है। आम जन भ्रमित होने से उनका भारत विरोधी विमर्श मजबूत होता है।

सुप्रीम कोर्ट के आदेशों से संरक्षण कमजोर नहीं, बल्कि अधिक स्पष्ट और मजबूत हुआ है। दिल्ली-NCR सहित अरावली की अधिकांश भूमि पर खनन पूर्ण रूप से प्रतिबंधित है। वैज्ञानिक परिभाषा के बाद लगभग 90% क्षेत्र कांटिन्यू संरक्षण में आ जाता है।
नई माइनिंग तभी संभव है जब वैज्ञानिक प्लान, पर्यावरण अध्ययन और उच्च स्तरीय अनुमोदन मिले।

इस तरह देखा जाए तो अरावली में अनियंत्रित खनन की आशंका वास्तविकता में बहुत कम बची है और अदालत व सरकार का रुख संरक्षण-उन्मुख है।

सूचना-युद्ध, मिथ्या फ्रेमिंग और अरावली विवाद
आज सूचना स्वयं एक युद्ध का हथियार बन चुकी है। सोशल मीडिया की तेज़ी ने सत्य और झूठ के मध्य दूरी बढ़ा दी है। झूठ भावनाओं को लक्ष्य बनाता है और Framing by Omission, identity manipulation तथा cultural narratives जैसे उपकरणों के माध्यम से समाज में अविश्वास बोता है।

अरावली संरक्षण पर फैलाई गई मिथ्या खबरें इसका उदाहरण हैं। कुछ यूट्यूबरों और influencers ने 100 मीटर नियम और खनन नीति को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत किया, जिससे भ्रम फैला कि अरावली में बड़े पैमाने पर खुदाई की छूट मिल गई है। जबकि सच्चाई यह है कि नई वैज्ञानिक परिभाषा और सुप्रीम कोर्ट के आदेशों से लगभग 90% अरावली संरक्षित श्रेणी में आती है और खनन केवल लगभग 0.2–2% क्षेत्र में ही संभव है, वह भी कड़ी पर्यावरणीय स्वीकृतियों के बाद।

सूचना-युद्ध की सबसे बड़ी चुनौती यही है। सत्य के आने तक झूठ सामाजिक मानस में जगह बना लेता है। इसलिए जागरूक नागरिकों, पत्रकारों और शोधकर्ताओं का कर्तव्य है कि कथनों की सत्यता स्रोत और संदर्भ सहित जांचें। अन्यथा perception का नैरेटिव सत्य पर हावी हो जाएगा और समाज भ्रम की राजनीति में फंस जाएगा। अरावली केवल पर्यावरणीय विषय नहीं, बल्कि भारत की पारिस्थितिक सुरक्षा और सामूहिक उत्तरदायित्व का प्रश्न है और इसका विमर्श तथ्यों पर ही आधारित होना चाहिए।

लेखक-

कैलाश चंद्र, क्षेत्र प्रचार प्रमुख, (मध्य क्षेत्र)
प्रचार विभाग राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ। केंद्र, भोपाल।