वीरो का इतिहास - 1857 के स्वतंत्रता संग्राम की वीरांगना झलकारी बाई कोली
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 स्वतंत्रता संग्राम की महान वीरांगना झलकारी बाई कोली क़ी जयंती
                                    स्वतंत्रता संग्राम की महान वीरांगना झलकारी बाई कोली क़ी जयंती 
                                - वीरांगना झलकारी बाई के संबंध में एक और पहलू इस तरह है कि वे रानी लक्ष्मीबाई की हमशक्ल भी थीं इस कारण शत्रु को धोखा देने के लिए वे रानी के वेश में भी युद्ध करती थीं। 
- एक बार गौरी पूजा के अवसर पर झलकारी गाँव की अन्य महिलाओं के साथ महारानी को सम्मान देने झाँसी के किले मे गयीं, वहाँ रानी लक्ष्मीबाई उन्हें देख कर अवाक् रह गयीं क्योंकि झलकारी बिल्कुल रानी लक्ष्मीबाई की तरह दिखतीं थीं। 
जबलपुर/स्वाधीनता के अमृत काल के  आलोक में सन 1857 की स्वतंत्रता संग्राम की महान वीरांगना झलकारी बाई कोली क़ी जयंती 22 नवंबर पर विशेष रिपोर्ट.
राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने महान् वीरांगना झलकारी बाई कोली के बारे लिखा है कि - 
"जा कर रण में ललकारी थी, 
वह तो झाँसी की झलकारी थी। 
गोरों से लड़ना सिखा गई, 
है इतिहास में झलक रही, 
वह भारत की ही नारी थी।।"
वहीं दूसरी ओर जनरल ह्यूरोज ने कहा था कि - "यदि भारत की 1%महिलाऐं भी उसकी जैंसी हो जाएं तो अंग्रेजों को सब कुछ छोड़कर यहाँ से चले जाना होगा।" फिर आखिर क्यों? महान् वीरांगना झलकारी बाई के इतिहास में उचित स्थान देना तो छोड़िए वरन् उनके इतिहास तोड़- मरोड़ कर रख दिया! आखिर क्यों?
वास्तविकता यह है कि पश्चिमी इतिहासकारों, वामपंथी इतिहासकारों के साथ एक दल विशेष के समर्थक जूंठनखोर इतिहासकारों ने मिलकर मुगलों और अंग्रेज़ों का और उनके भारतीय समर्थकों का इतिहास में गुणगान कर पाठ्यक्रमों में शामिल किया ताकि हमारा वीरोचित इतिहास दफन हो जाए!आने वाली भावी पीढ़ियों हीन भावना से ग्रसित केवल हमारी पराजयों का इतिहास पढ़ती रहें, हमारी विजयों और वीरोचित संघर्ष का नहीं ! और वास्तविक भारतीय वीरांगनाओं के साथ तो दोयम दर्जे का व्यवहार हुआ!... वीरांगना झलकारी बाई भी इसी षडयंत्र का शिकार हुई हैं!
वीरांगना झलकारी बाई का जन्म 22 नवम्बर 1830 को झांसी के पास के भोजला गाँव में एक निर्धन कोली परिवार में हुआ था, तथा बलिदान 4 अप्रैल 1858 को हुआ। झलकारी बाई के पिता का नाम सदोवर सिंह (मूलचंद कोली) और माता का नाम जमुना देवी था। जब झलकारी बाई बहुत छोटी थीं तब उनकी माँ की मृत्यु के हो गयी थी और उसके पिता ने उन्हें एक लड़के की तरह पाला था। उन्हें घुड़सवारी और हथियारों का प्रयोग करने में प्रशिक्षित किया गया था। उन दिनों की सामाजिक परिस्थितियों के कारण उन्हें कोई औपचारिक शिक्षा तो प्राप्त नहीं हो पाई, लेकिन उन्होंने खुद को एक अच्छे योद्धा के रूप में विकसित किया था।
झलकारी बचपन से ही बहुत साहसी और दृढ़ प्रतिज्ञ बालिका थी। झलकारी घर के काम के अलावा पशुओं के रखरखाव और जंगल से लकड़ी इकट्ठा करने का काम भी करती थी।एक बार जंगल में उसकी मुठभेड़ एक तेंदुए के साथ हो गयी थी, और झलकारी ने अपनी कुल्हाड़ी से उस जानवर को मार डाला था। एक अन्य अवसर पर जब डकैतों के एक गिरोह ने गाँव के एक व्यवसायी पर हमला किया तब झलकारी ने अपनी बहादुरी से उन्हें पीछे हटने को मजबूर कर दिया था। उसकी इस बहादुरी से खुश होकर गाँव वालों ने उसका विवाह रानी लक्ष्मीबाई की सेना के एक सैनिक पूरन कोरी से करवा दिया, पूरन भी बहुत बहादुर था और पूरी सेना उसकी बहादुरी का लोहा मानती थी।
एक बार गौरी पूजा के अवसर पर झलकारी गाँव की अन्य महिलाओं के साथ महारानी को सम्मान देने झाँसी के किले मे गयीं, वहाँ रानी लक्ष्मीबाई उन्हें देख कर अवाक् रह गयीं क्योंकि झलकारी बिल्कुल रानी लक्ष्मीबाई की तरह दिखतीं थीं। अन्य औरतों से झलकारी की बहादुरी के किस्से सुनकर रानी लक्ष्मीबाई बहुत प्रभावित हुईं। रानी ने झलकारी को दुर्गा सेना में शामिल करने का आदेश दिया। झलकारी ने यहाँ अन्य महिलाओं के साथ बंदूक चलाना, तोप चलाना और तलवारबाजी की प्रशिक्षण लिया। यह वह समय था जब झांसी की सेना को किसी भी ब्रिटिश दुस्साहस का सामना करने के लिए मजबूत बनाया जा रहा था
लार्ड डलहौजी की राज्य हड़पने की नीति के चलते, ब्रिटिशों ने निःसंतान लक्ष्मीबाई को उनका उत्तराधिकारी गोद लेने की अनुमति नहीं दी, क्योंकि वे ऐसा करके राज्य को अपने नियंत्रण में लाना चाहते थे। 
हालांकि, ब्रिटिश सरकार की इस कार्यवाही के विरोध में रानी के सारी सेना, उसके सेनानायक और झांसी के लोग रानी के साथ लामबंद हो गये और उन्होंने आत्मसमर्पण करने के बजाय ब्रिटिशों के ख़िलाफ़ हथियार उठाने का संकल्प लिया। 
अप्रैल 1858 के दौरान, लक्ष्मीबाई ने झांसी के किले के भीतर से, अपनी सेना का नेतृत्व किया और ब्रिटिश और उनके स्थानीय सहयोगियों द्वारा किये कई हमलों को नाकाम कर दिया। रानी के सेनानायकों में से एक दूल्हेराव ने उसे धोखा दिया और किले का एक संरक्षित द्वार ब्रिटिश सेना के लिए खोल दिया। जब किले का पतन निश्चित हो गया तो रानी के सेनापतियों और झलकारी बाई ने उन्हें कुछ सैनिकों के साथ किला छोड़कर पलायन करने की सलाह दी। रानी अपने घोड़े पर बैठ अपने कुछ विश्वस्त सैनिकों के साथ झांसी से दूर निकल गईं। झलकारी बाई के पति पूरन किले की रक्षा करते हुए बलिदान हो गये।
लेकिन झलकारी बाई ने बजाय अपने पति की मृत्यु का शोक मनाने के, ब्रिटिशों को धोखा देने की एक योजना बनाई। झलकारी बाई ने लक्ष्मीबाई की तरह कपड़े पहने और झांसी की सेना की कमान अपने हाथ मे ले ली। जिसके बाद वह किले के बाहर निकल ब्रिटिश जनरल ह्यूरोज़ के शिविर मे उससे मिलने पहँची। ब्रिटिश शिविर में पहँचने पर उसने चिल्लाकर कहा कि वो जनरल ह्यूरोज़ से मिलना चाहती है।
ह्यूरोज़ और उसके सैनिक प्रसन्न थे कि न सिर्फ उन्होंने झांसी पर कब्जा कर लिया है बल्कि जीवित रानी भी उनके कब्ज़े में है। जनरल ह्यूरोज़ जो उसे रानी ही समझ रहा था, ने झलकारी बाई से पूछा कि उसके साथ क्या किया जाना चाहिए? तो उसने दृढ़ता के साथ कहा, मुझे फाँसी दो। जनरल ह्यूरोज़ झलकारी का साहस और उसकी नेतृत्व क्षमता से बहुत प्रभावित हुआ, और झलकारी बाई को रिहा कर दिया गया। इसके विपरीत कुछ इतिहासकार मानते हैं कि झलकारी इस युद्ध के दौरान वीरगति को प्राप्त हुई। एक बुंदेलखंड जनश्रुति है कि झलकारी के इस उत्तर से जनरल ह्यूरोज़ दंग रह गया और उसने कहा कि "यदि भारत की 1% महिलायें भी उसके जैसी हो जायें तो ब्रिटिशों को जल्दी ही भारत छोड़ना होगा"।
यद्किंचित यह भी इतिहास में दर्ज है कि झलकारी बाई झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की नियमित सेना में, महिला शाखा दुर्गा दल की सेनापति थीं।वे लक्ष्मीबाई की हमशक्ल भी थीं इस कारण शत्रु को गुमराह करने के लिए वे रानी के वेश में भी युद्ध करती थीं। अपने अंतिम समय में भी वे रानी के वेश में युद्ध करते हुए वे अंग्रेज़ों के हाथों पकड़ी गयीं और रानी को किले की घेराबंदी से बाहर निकलने का अवसर मिल गया। उन्होंने प्रथम स्वाधीनता संग्राम में झाँसी की रानी के साथ ब्रिटिश सेना के विरुद्ध अद्भुत वीरता से लड़ते हुए ब्रिटिश सेना के कई हमलों को विफल किया था। यदि लक्ष्मीबाई के सेनानायकों में से एक ने उनके साथ विश्वासघात न किया होता तो झांसी का किला ब्रिटिश सेना के लिए प्राय: अभेद्य था।
वीरांगना झलकारी बाई के संबंध में एक और पहलू इस तरह है कि वे रानी लक्ष्मीबाई की हमशक्ल भी थीं इस कारण शत्रु को धोखा देने के लिए वे रानी के वेश में भी युद्ध करती थीं। कहा जाता है कि झलकारी बाई का पति पूरन किले की रक्षा करते हुए शहीद हो गया लेकिन झलकारी ने बजाय अपने पति की मृत्यु का शोक मनाने के, ब्रिटिशों से संघर्ष का मार्ग चुना। जब किले का पतन निश्चित हो गया तो रानी के सेनापतियों और झलकारी बाई ने उन्हें कुछ सैनिकों के साथ किला छोड़कर भागने की सलाह दी। योजनानुसार महारानी लक्ष्मीबाई एवं झलकारी दोनों पृथक-पृथक द्वार से किले बाहर निकलीं। झलकारी ने तामझाम अधिक पहन रखा था जिस कारण शत्रु ने उन्हें ही रानी समझा और उन्हें ही घेरने का प्रयत्न किया। रानी अपने घोड़े पर बैठ अपने कुछ विश्वस्त सैनिकों के साथ झांसी से दूर निकल गईं। शत्रु सेना से घिरी झलकारी भयंकर युद्ध करने लगी। किन्तु अंततः झलकारी घेर ली गई।ब्रिटिश शिविर में पहँचने पर उसने चिल्लाकर कहा कि वो जनरल ह्यूरोज़ से मिलना चाहती है। रोज़ और उसके सैनिक प्रसन्न थे कि न सिर्फ उन्होने झांसी पर कब्जा कर लिया है बल्कि जीवित रानी भी उनके कब्ज़े में है। जनरल ह्यूरोज़, जो उसे रानी ही समझ रहा था, ने झलकारी बाई से पूछा कि उसके साथ क्या किया जाना चाहिए? तो उसने दृढ़ता के साथ कहा,मुझे फाँसी दो। एक अन्य ब्रिटिश अफसर ने कहा--“मुझे तो यह स्त्री पगली मालूम पड़ती है।”
जनरल ह्यूरोज़ ने इसका तत्काल उत्तर देते हुए कहा-“यदि भारत की एक प्रतिशत नारियाँ इसी प्रकार पागल हो जाएँ तो हम अंग्रेजों को सब कुछ छोड़कर यहाँ से चले जाना होगा।” घोड़े पर बैठी झलकारी बाई को देखकर फिरंगी दल भौंचक्का रह गया। रानी आ गई, झांसी की रानी ने समर्पण कर दिया है, जैसी चर्चा हर सैनिक कर रहा था। किन्तु तभी एक गद्दार दूल्हाजू ने झलकारी बाई को पहचान कर शोर मचा दिया कि अरे यह रानी नहीं है झलकारी है।उसके बताने पर पता चला कि यह रानी लक्ष्मी बाई नहीं बल्कि महिला सेना की सेनापति झलकारी बाई है जो अग्रेंजी सेना को धोखा देने के लिए रानी लक्ष्मीबाई बन कर लड़ रही है। ब्रिटिश सेनापति ह्यूरोज़ ने झलकारी को डपटते हुए कहा कि-“आपने रानी बनकर हमको धोखा दिया है और महारानी लक्ष्मीबाई को यहाँ से निकलने में मदद की है। आपने हमारे एक सैनिक की भी जान ली है। मैं भी आपके प्राण लूँगा।
”झलकारी ने गर्व से उत्तर देते हुए कहा-“मार दे गोली, मैं प्रस्तुत हूँ।” सैनिक उन पर झपटे, किन्तु झलकारी बाई तलवार म्यान से बाहर निकाल कर मारकाट करने लगी। ह्यूरोज जमीन पर गिर पड़ा, और उसके मुंह से बेसाख्ता निकला - बहादुर औरत शाबास। जिस रानी की नौकरानी इतनी बहादुर है वह रानी कैसी होगी। काफी संघर्ष के बाद जनरल ह्यूरोज़ ने झलकारी को पकड़ने में सफलता पाई और उन्हें एक तम्बु में कैद कर लिया। इसके आगे क्या हुआ, झलकारी बाई का अंत कैसे हुआ, इसे लेकर कुछ मतभेद है ।
प्रख्यात लेखक वृंदावनलाल वर्मा ने अपनी पुस्तक “झांसी की रानी” में लिखा कि रानी और झलकारीबाई के संभ्रम का खुलासा होने के बाद ह्यूरोज ने झलकारीबाई को मुक्त कर दिया था। उनके अनुसार झलकारी बाई का देहांत एक लंबी उम्र जीने के बाद हुआ था (उनके अनुसार उन्होने खुद झलकारीबाई के नाती से जानकारी ली थी)।
बद्री नारायण भी अपनी पुस्तक “वूमन हीरोज एन्ड दलित एसरसन इन नार्थ इंडिया : कल्चर, आइडेंटिटी एन्ड पालिटिक्स " में वर्मा जी से सहमत दिखते हैं। किंवदंती के अनुसार भी जनरल ह्यूरोज झलकारी का साहस और उसकी नेतृत्व क्षमता से बहुत प्रभावित हुआ, और झलकारी बाई को रिहा कर दिया था | पर कई लोग मानते हैं कि वो अंग्रेज जिन्होंने लाखों निर्दोष मनुष्यों और अनगिनत क्रांतिकारियों को क्रूर तरीकों से मारा था। उनसे इस मानवीयता की आशा की ही नहीं जा सकती, अतः यह केवल एक कयास मात्र लगता है।
कुछ इतिहासकारों का कहना है कि उन्हें अंग्रेजों द्वारा फाँसी दे दी गई, वहीँ कुछ का कहना है कि उनका अंग्रेजों की कैद में जीवन समाप्त हुआ। इसके विपरीत कुछ इतिहासकार मानते हैं कि झलकारी इस युद्ध के दौरान ही वीरगति को प्राप्त हुई जो कि सही मालूम पड़ता है । श्रीकृष्ण सरल ने अपनी “इंडियन रिवोल्यूशनरीज : ए काम्प्रिहेंन्सिव स्टडी , 1757-1961, वाल्यूम 1” पुस्तक में उनकी मृत्यु लड़ाई के दौरान हुई थी, ऐसा वर्णन किया है।
 अखिल भारतीय युवा कोली राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ. नरेशचन्द्र कोली के अनुसार 4 अप्रैल 1857 को झलकारी बाई ने वीरगति प्राप्त की।
झलकारी बाई की गाथा आज भी बुंदेलखंड की लोकगाथाओं और लोकगीतों में सुनी जा सकती है। अनेक विद्वानों, सहित्यकारों, इतिहासकारों ने झलकारी के स्वतन्त्रता संग्राम में योगदान का वर्णन किया है । अरुणाचल प्रदेश के राज्यपाल रहे श्री माता प्रसाद ने झलकारी बाई की जीवनी की रचना की है। इसके अलावा चोखेलाल वर्मा ने उनके जीवन पर एक वृहद काव्य लिखा है, मोहनदास नैमिशराय ने उनकी जीवनी को पुस्तकाकार दिया है और भवानी शंकर विशारद ने उनके जीवन परिचय को लिपिबद्ध किया है।
झलकारी बाई का विस्तृत इतिहास भारत सरकार के सूचना एवं प्रसारण के प्रकाशन विभाग ने झलकारी बाई शीर्षक से ही प्रकाशित किया है। बुन्देली के सुप्रसिद्ध गीतकार महाकवि अवधेश ने झलकारी बाई शीर्षक से एक नाटक लिखकर वीरांगना झलकारीबाई की ऐतिहासिकता प्रमाणित की है। बाई की गाथा आज भी बुंदेलखंड की लोकगाथाओं और लोकगीतों में सुनी जा सकती है। भारत सरकार ने 22 जुलाई 2001 में झलकारी बाई के सम्मान में एक डाक टिकट जारी किया। अब अखिल भारतीय इतिहास संकलन योजना के अंतर्गत सन् 1857 के स्वतंत्रता संग्राम की महान् वीरांगना झलकारी बाई के महान् अवदान और गौरवशाली इतिहास पर  उपरोक्त मतमतांतरों के कारण उत्पन्न समस्याओं के निराकरण हेतु अन्वेषण कार्य पूर्ण हो गया है, अल्पांश प्रस्तुत है, शीघ्र ही विहंगम इतिहास प्रकाशित होकर आपके समक्ष होगा।
डॉ. आनंद सिंह राणा,
श्रीजानकीरमण महाविद्यालय एवं इतिहास संकलन समिति महाकोशल प्रांत
 
                                     
                                     
                                     
                                     
                     
                     
                     
                     
                     
                     
                     
                     
                     
                     
                     
                     
                     
                     
                     
                     
                     
                     
                     
                                     
                                     
                                     
                                     
                     
                     
                     
                     
                     
                     
                     
                     
                                     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