अरावली पर सुप्रीम कोर्ट ने क्यों रोका बड़ा फैसला? 20 नवंबर के आदेश पर स्टे
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अरावली की परिभाषा पर सुप्रीम कोर्ट की गहरी चिंता.
20 नवंबर के आदेश पर रोक, विशेषज्ञ समिति का प्रस्ताव.
खनन और पर्यावरण असर पर केंद्र से जवाब तलब.
Delhi / अरावली पर्वतमाला से जुड़े मामले ने एक बार फिर देश में पर्यावरण संरक्षण और विकास के बीच संतुलन की बहस को केंद्र में ला दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने इस अहम मुद्दे पर केंद्र सरकार से स्पष्टीकरण मांगते हुए मौजूदा परिभाषा पर गंभीर सवाल खड़े किए हैं। मुख्य न्यायाधीश सूर्यकांत ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि वर्तमान परिभाषा अगर ऐसे ही लागू की गई, तो इससे पर्यावरण संरक्षण का दायरा सिमट सकता है, जो भविष्य में गंभीर परिणाम ला सकता है।
कोर्ट ने 20 नवंबर 2025 के अपने आदेश के क्रियान्वयन पर फिलहाल रोक लगा दी है। अदालत का मानना है कि इतने संवेदनशील मामले में किसी भी फैसले से पहले निष्पक्ष, स्वतंत्र और वैज्ञानिक जांच बेहद जरूरी है। इसी को ध्यान में रखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने हाई पावर्ड एक्सपर्ट कमेटी बनाने का प्रस्ताव रखा है, जिसमें पर्यावरण, भू-विज्ञान, खनन और इकोलॉजी से जुड़े डोमेन एक्सपर्ट्स शामिल होंगे। यह समिति अरावली की परिभाषा, खनन गतिविधियों, इकोलॉजिकल कंटिन्यूटी और संरचनात्मक प्रभावों जैसे अहम पहलुओं की गहन जांच करेगी।
सुनवाई के दौरान कोर्ट ने खनन के पर्यावरणीय असर को लेकर भी केंद्र से सीधे सवाल पूछे। अदालत ने कहा कि अरावली सिर्फ पहाड़ियों का समूह नहीं, बल्कि उत्तर भारत के लिए एक प्राकृतिक सुरक्षा कवच है। अगली सुनवाई 21 जनवरी 2026 को तय की गई है और तब तक यथास्थिति बनाए रखने का आदेश दिया गया है।
इस मामले में चीफ जस्टिस ने यह भी कहा कि कोर्ट की कुछ टिप्पणियों को गलत तरीके से पेश किया जा रहा है, जिससे भ्रम की स्थिति बन रही है। उन्होंने साफ किया कि 20 नवंबर के आदेश को लागू करने से पहले एक ठोस और निष्पक्ष रिपोर्ट अनिवार्य है। अरावली पहाड़ियों की परिभाषा, 500 मीटर की दूरी की सीमा, खनन की अनुमति या रोक जैसे मुद्दों पर अभी कई अस्पष्टताएं हैं, जिन्हें सुलझाना जरूरी है।
सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कोर्ट को बताया कि सरकार इस मुद्दे को समग्र रूप से देख रही है और विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट को स्वीकार किया जाएगा। उन्होंने कहा कि विशेषज्ञों द्वारा एक वैज्ञानिक माइनिंग प्लान तैयार किया जाएगा, जिसे कोर्ट की मंजूरी के बाद ही लागू किया जाएगा। इस प्रक्रिया में पब्लिक कंसल्टेशन भी शामिल होगा, जिसकी CJI ने सराहना की।
पर्यावरण विशेषज्ञों का कहना है कि अरावली पहाड़ियां थार रेगिस्तान को दिल्ली-NCR तक फैलने से रोकने वाली एक हरी दीवार हैं। यदि 10 से 30 मीटर ऊंची पहाड़ियों को “नॉन-हिल” मान लिया गया, तो उनके खत्म होने का खतरा बढ़ जाएगा। इसका असर धूल भरी आंधियों, भूजल स्तर में गिरावट और उत्तर भारत में बढ़ते वायु प्रदूषण के रूप में सामने आ सकता है।
अरावली में खनन को लेकर विवाद कोई नया नहीं है। इसकी शुरुआत 1996 में अवैध खनन के खिलाफ दायर याचिका से हुई थी। 2002 और 2004 में सुप्रीम कोर्ट ने वन भूमि में खनन पर रोक लगाई, लेकिन स्पष्ट परिभाषा के अभाव में कानूनी खामियां बनी रहीं। इसी का नतीजा यह रहा कि 2018 तक राजस्थान में कम से कम 31 पहाड़ खत्म हो गए।
2025 में लाई गई नई परिभाषा इन्हीं कमियों को दूर करने की कोशिश मानी गई, लेकिन इसके उलटे असर की आशंका भी सामने आई। #SaveAravalli अभियान के तहत देशभर में विरोध तेज हुआ, जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने स्वतः संज्ञान लिया। 100 मीटर की नई परिभाषा को लेकर बढ़ती चिंताओं के बीच कोर्ट ने आपात समीक्षा का फैसला किया।
दिसंबर 2025 में सुप्रीम कोर्ट और पर्यावरण मंत्रालय ने बड़ा कदम उठाते हुए दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान और गुजरात में सभी नई खनन लीज पर अंतरिम रोक लगा दी। जब तक सस्टेनेबल माइनिंग के लिए वैज्ञानिक मैनेजमेंट प्लान तैयार नहीं हो जाता, तब तक किसी भी नई अनुमति को मंजूरी नहीं दी जाएगी। कुल मिलाकर, अरावली का मामला अब सिर्फ खनन नहीं, बल्कि इस सवाल पर आ टिका है कि विकास की दौड़ में हम प्रकृति की परिभाषा कितनी संकीर्ण करने जा रहे हैं।