महामारी के बीच एक संघर्ष
पांच साल पहले जब पूरा देश और दुनिया कोविड-19 महामारी के बीच डर और अनिश्चितता में थी, तब पभ्या के लोगों ने एक अलग ही जंग लड़ी। छोटे बच्चों से लेकर बुजुर्गों तक, सभी ने अपने हाथों से गांव तक पहुंचने के लिए सड़क बनाने की कोशिश की। यह सड़क सिर्फ मिट्टी और पत्थरों की नहीं थी, यह उम्मीदों की सड़क थी। उन्हें यकीन था कि उनका प्रयास कभी न कभी शासन-प्रशासन की नजर तक जरूर पहुंचेगा।
विकास का वादा, लेकिन हकीकत वहीं की वहीं
चुनाव हुए, सरकार बदली या दोबारा आई — लेकिन गांव का भाग्य नहीं बदला। चार किलोमीटर की खड़ी चढ़ाई आज भी गांव वालों की नियति है। 96 वर्ष की एक अम्मा इस रास्ते को रोजमर्रा की मजबूरी की तरह झेलती हैं। जब भी उन्हें नीचे जाना होता है, वह पहले पैदल यह कठिन दूरी पार करती हैं और फिर वापस डोली में बैठकर चढ़ाई तय करती हैं। यह दृश्य सिर्फ दर्दनाक नहीं, बल्कि व्यवस्था पर सवाल भी उठाता है।
खामोश होता गांव और बढ़ती दूरी
यह कहानी सिर्फ पभ्या तक सीमित नहीं है। देश में ऐसे अनगिनत गांव हैं जहां विकास पहुंच ही नहीं पाया। जहां जनसंख्या कम होती है, वहां आवाज भी कम सुनी जाती है — और ठीक यही वजह है कि पभ्या जैसे गांव सरकार की प्राथमिकता में कभी जगह ही नहीं बना सके।
आवश्यकता सिर्फ सड़क की नहीं, संवेदना की भी है
पभ्या गांव की सबसे बड़ी त्रासदी सिर्फ सड़क का न बन पाना नहीं है, बल्कि यह है कि इस गांव की पीड़ा किसी तक पहुंच ही नहीं पाई। आज़ादी के 70 साल बाद भी यदि लोग इलाज, शिक्षा और जिंदगी की बुनियादी जरूरतों के लिए संघर्ष कर रहे हैं, तो सवाल विकास मॉडल पर उठना स्वाभाविक है।
यह गांव अब भी इंतजार में है—किसी सुनने वाले के, किसी जवाब देने वाले के… और शायद किसी बदलाव के।