Vinod Kumar Shukla Death | ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता साहित्यकार विनोद कुमार शुक्ल का निधन, हिंदी साहित्य को अपूरणीय क्षति

Tue 23-Dec-2025,09:04 PM IST +05:30

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Vinod Kumar Shukla Death | ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता साहित्यकार विनोद कुमार शुक्ल का निधन, हिंदी साहित्य को अपूरणीय क्षति Vinod-Kumar-Shukla
  • ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता विनोद कुमार शुक्ल का निधन.

  • रायपुर एम्स में इलाज के दौरान ली अंतिम सांस.

  • सरल और संवेदनशील लेखन से बनाई अलग पहचान.

Chhattisgarh / Raipur :

Raipur /रायपुर के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) से आई खबर ने हिंदी साहित्य जगत को गहरे शोक में डुबो दिया। हिंदी के शीर्ष कवि-कथाकार और ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित विनोद कुमार शुक्ल का 89 वर्ष की उम्र में निधन हो गया। वे पिछले कुछ दिनों से अस्वस्थ थे और सांस लेने में तकलीफ के कारण 2 दिसंबर को एम्स रायपुर में भर्ती किए गए थे, जहां वे वेंटिलेटर पर ऑक्सीजन सपोर्ट पर थे। मंगलवार को उन्होंने अंतिम सांस ली। उनके जाने से हिंदी साहित्य ने एक ऐसा स्वर खो दिया है, जो बहुत धीमे बोलता था, लेकिन भीतर तक असर करता था।

विनोद कुमार शुक्ल का जन्म 1 जनवरी 1937 को छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव में हुआ था। लगभग नौ दशकों के जीवन में उन्होंने साहित्य को कभी शोर नहीं बनाया, बल्कि उसे जीवन की सहज लय में जिया। वे उन लेखकों में थे, जिन्होंने बड़े विचारों को बड़े शब्दों के सहारे नहीं, बल्कि साधारण भाषा और गहरी संवेदनशीलता के जरिए व्यक्त किया। उनका जीवन भी उनके लेखन की तरह सादा, शांत और आत्मीय था। अध्यापन को उन्होंने अपना पेशा बनाया, लेकिन साहित्य ही उनका वास्तविक संसार रहा।

पिछले ही महीने उन्हें हिंदी साहित्य के सर्वोच्च सम्मान, ज्ञानपीठ पुरस्कार से नवाजा गया था। यह सम्मान उनके लंबे और मौलिक रचनात्मक सफर की स्वीकृति था। मध्यमवर्गीय, साधारण और अक्सर अनदेखे रह जाने वाले जीवन को उन्होंने अपनी कविताओं, कहानियों और उपन्यासों में जिस कोमलता और सूक्ष्मता से जगह दी, वह हिंदी साहित्य में विरल है। उनके लेखन में एक छोटा-सा कमरा, एक खिड़की, घास का टुकड़ा या एक पेड़ भी पूरे ब्रह्मांड की तरह खुल जाता है।

उनका पहला कविता संग्रह ‘लगभग जय हिन्द’ 1971 में प्रकाशित हुआ। इसी के साथ हिंदी कविता में उनकी विशिष्ट भाषिक बनावट, चुप्पी और भीतर तक उतरने वाली संवेदनाएं दर्ज होने लगीं। इसके बाद ‘वह आदमी चला गया नया गरम कोट पहिनकर विचार की तरह’, ‘सब कुछ होना बचा रहेगा’, ‘अतिरिक्त नहीं’, ‘कविता से लंबी कविता’, ‘आकाश धरती को खटखटाता है’, ‘पचास कविताएँ’, ‘कभी के बाद अभी’, ‘कवि ने कहा’, ‘चुनी हुई कविताएँ’ और ‘प्रतिनिधि कविताएँ’ जैसे संग्रहों ने उन्हें समकालीन हिंदी कविता के सबसे मौलिक और अलग स्वरों में स्थापित कर दिया।

कथा-साहित्य में उनका उपन्यास ‘नौकर की कमीज़’ 1979 में आया और उसने हिंदी उपन्यास की धारा को एक नया मोड़ दिया। इस उपन्यास पर बाद में प्रसिद्ध फिल्मकार मणि कौल ने फिल्म भी बनाई। इसके बाद ‘खिलेगा तो देखेंगे’, ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’, ‘हरी घास की छप्पर वाली झोपड़ी और बौना पहाड़’, ‘यासि रासा त’ और ‘एक चुप्पी जगह’ जैसे उपन्यासों के जरिए उन्होंने लोकआख्यान, स्वप्न, स्मृति, मध्यवर्गीय जीवन और मनुष्य की जटिल आकांक्षाओं को एक विशिष्ट कथा-शिल्प में ढाला।

उनके कहानी संग्रह ‘पेड़ पर कमरा’, ‘महाविद्यालय’, ‘एक कहानी’ और ‘घोड़ा और अन्य कहानियाँ’ में दर्ज कथाएं घरेलू, सूक्ष्म और अक्सर उपेक्षित जीवन-क्षणों को असाधारण कथा-समृद्धि देती हैं। उनकी अनेक रचनाएं भारतीय और विदेशी भाषाओं में अनूदित हुईं, जिससे उनका साहित्य वैश्विक पाठक वर्ग तक पहुंचा।

अपने लंबे रचनात्मक जीवन में विनोद कुमार शुक्ल को साहित्य अकादमी पुरस्कार, गजानन माधव मुक्तिबोध फेलोशिप, रज़ा पुरस्कार, शिखर सम्मान, राष्ट्रीय मैथिलीशरण गुप्त सम्मान, दयावती मोदी कवि शेखर सम्मान, हिंदी गौरव सम्मान, मातृभूमि पुरस्कार, साहित्य अकादमी का ‘महत्तर सदस्य’ सम्मान और पैन-नाबोकोव पुरस्कार जैसे अनेक प्रतिष्ठित सम्मानों से नवाजा गया।

विनोद कुमार शुक्ल का निधन हिंदी साहित्य के लिए अपूरणीय क्षति है। लेकिन उनकी कविताएं, कहानियां और उपन्यास उन्हें हमेशा जीवित रखेंगे। वे उन दुर्लभ लेखकों में थे, जिन्होंने बिना ऊंची आवाज़ के, बिना किसी प्रदर्शन के, मनुष्य के भीतर की दुनिया को शब्द दिए। हिंदी साहित्य उन्हें एक ऐसे रचनाकार के रूप में हमेशा याद रखेगा, जिसकी सादगी ही उसकी सबसे बड़ी ताकत थी और जिसकी चुप्पी में भी जीवन की गहरी आवाज़ सुनाई देती थी।